आवास (झोंपड़ी) व हलके फर्नीचर बनाने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में बांस प्रमुखता से प्रयोग किया जाता है. इस प्रकार यह आदमी की 3 प्रमुख जरूरतों जैसे रोटी, कपड़ा और मकान को पूरा करता है.
भारत बांस संसाधन से संपन्न है, क्योंकि यह देश के अधिकतर क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है. देश में इस समय बांस की लगभग 125 देशी व विदेशी प्रजातियां उपलब्ध हैं. पूरे देश के 89.6 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में बांस वाला वन क्षेत्र है, जो पूरे वन क्षेत्रफल का तकरीबन 12.8 फीसदी है.
आमतौर पर गांव में लोग अपने घर के आसपास ही काफी अधिक मात्रा में बांस उगाते हैं, ताकि उस से वे अपने रोजाना की जरूरतें पूरी कर सकें.
जलवायु और मिट्टी
बहुत ठंडे क्षेत्रों को छोड़ कर लगभग हर प्रकार के क्षेत्रों में बांस का रोपण किया जा सकता है. इस के लिए उचित जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी सर्वोत्तम रहती है. बांस जलोढ़, पथरीली व लाल मिट्टी में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है.
प्रमुख प्रजातियां
वर्तमान में देश में बांस के 23 वंश (जेनरा) और 125 जातियां (स्पीसीज) पाई जाती हैं. क्षेत्र व जलवायु के हिसाब से बांस की अलगअलग प्रजातियां उपयुक्त होती हैं.
उत्तरपूर्वी भारत (पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ आदि) में रोपण के लिए उपयुक्त जातियां (स्पीसीज) हैं.
• बैंबूसा बाल्कोवा
• बैंबूसा टुल्डा
• डैंड्रोकेलेमस स्ट्रिक्टस
प्रारंभ की 2 जातियों में बांस की कटाई ज्यादा आसान रहती है.
प्रवर्धन तकनीकी
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कचरे के पहाड़ों पर खेती कमाई की तकनीक
वर्तमान में कचरा एक गंभीर वैश्विक समस्या बन कर उभरा है. भारत की बात करें, तो साल 2023 में पर्यावरण की स्थिति पर जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में प्रतिदिन तकरीबन डेढ़ करोड़ टन ठोस कचरा पैदा हो रहा है, जिस में से केवल एकतिहाई से भी कम कचरे का ठीक से निष्पादन हो पाता है. बचे कचरे को खुली जगहों पर ढेर लगाते हैं, जिसे कचरे की लैंडफिलिंग कहते हैं.
सर्दी की फसल शलजम
कम समय में तैयार होने वाली फसल शलजम है. इसे खास देखभाल की जरूरत नहीं होती है और किसान को क मुनाफा भी ज्यादा मिलता है. शलजम जड़ वाली हरी फसल है. इसे ठंडे मौसम में हरी सब्जी के रूप उगाया व इस्तेमाल किया जाता है. शलजम का बड़ा साइज होने पर इस का अचार भी बनाया जाता है.
राममूर्ति मिश्र : वकालत का पेशा छोड़ जैविक खेती से तरक्की करता किसान
हाल के सालों में किसानों ने अंधाधुंध रासायनिक खादों और कीटनाशकों का प्रयोग कर धरती का खूब दोहन किया है. जमीन से अत्यधिक उत्पादन लेने की होड़ के चलते खेतों की उत्पादन कूवत लगातार घट रही है, क्योंकि रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग के चलते मिट्टी में कार्बांश की मात्र बेहद कम हो गई है, वहीं सेहत के नजरिए से भी रासायनिक उर्वरकों से पैदा किए जाने वाले अनाज और फलसब्जियां नुकसानदेह साबित हो रहे हैं.
करें पपीते की वैज्ञानिक खेती
पपीता एक महत्त्वपूर्ण फल है. हमारे देश में इस का उत्पादन पूरे साल किया जा सकता है. पपीते की खेती के लिए मुख्य रूप से जाना जाने वाला प्रदेश झारखंड है. यहां उचित जलवायु मिलने के कारण पपीते की अनेक किस्में तैयार की गई हैं.
दिसंबर महीने के जरुरी काम
आमतौर पर किसान नवंबर महीने में ही गेहूं की बोआई का काम खत्म कर देते हैं, मगर किसी वजह से गेहूं की बोआई न हो पाई हो, तो उसे दिसंबर महीने के दूसरे हफ्ते तक जरूर निबटा दें.
चने की खेती और उपज बढाने के तरीके
भारत में बड़े पैमाने पर चने की खेती होती है. चना दलहनी फसल है. यह फसल प्रोटीन, फाइबर और विभिन्न विटामिनों के साथसाथ मिनरलों का स्त्रोत होती है, जो इसे एक पौष्टिक आहार बनाती है.
रोटावेटर से जुताई
आजकल खेती में नएनए यंत्र आ रहे हैं. रोटावेटर ट्रैक्टर से चलने वाला जुताई का एक खास यंत्र है, जो दूसरे यंत्रों की 4-5 जुताई के बराबर अपनी एक ही जुताई से खेत को भुरभरा बना कर खेती योग्य बना देता है.
आलू खुदाई करने वाला खालसा पोटैटो डिगर
खालसा डिगर आवश्यक जनशक्ति और समय बचाता है. इस डिगर को जड़ वाली फसलों की खुदाई के लिए डिजाइन किया गया है. इस का गियर बौक्स में गुणवत्तापूर्ण पुरजों का इस्तेमाल किया गया है, जो लंबे समय तक साथ देने का वादा करते हैं.
कृषि एवं कौशल विकास से ही आत्मनिर्भर भारत बन सकेगा
बातचीत : गौतम टेंटवाल, कौशल विकास एवं रोजगार मंत्री, मध्य प्रदेश
गेहूं में खरपतवार नियंत्रण के प्रभावी उपाय
खरपतवार ऐसे पौधों को कहते हैं, जो बिना बोआई के ही खेतों में उग आते हैं और बोई गई फसलों को कई तरह से नुकसान पहुंचाते हैं. मुख्यतः खरपतवार फसलीय पौधों से पोषक तत्त्व, नमी, स्थान यानी जगह और रोशनी के लिए होड़ करते हैं. इस से फसल के उत्पादन में कमी होती है.