पूर्ण चिकित्सा पद्धति है - स्वामी अंतर जगदीश
मनुष्य की पीड़ा और भूल का मनोविश्लेषण कर ओशो ने ध्यान की एक अनूठी व्यवस्था को जन्म दिया। जो न सिर्फ आधुनिक मनुष्य की मनोपृष्ठभूमि पर आधारित है, बल्कि इस तरह से संयोजित है कि, किन्हीं आतंरिक कारणों से बच्चे, जवान और वृद्धों सभी को भाती है। कारण इसका गैर-गंभीर तत्त्व है, उत्सव है और प्राकृतिक नियमों पर आधारित होना है। और इस व्यवस्था को जमाते हुए उन्होंने बड़ी सूक्ष्मता से मन की से चालों और अपेक्षाओं को उकेरा इसलिए ध्यान विधियों के अतिरिक्त उन्होंने समूह चिकित्सा पद्धतियों की रचना की जिनके माध्यम से हम मन की जकड़ से छूट कर, उसकी अचेतन प्रणाली को भेदकर, अपना विकास कर सकें। यह आज के मनुष्य के लिए आध्यात्मिक विकास का मूलाधार है अन्यथा वर्षों का श्रम भी अंत में 'कोल्हू का बैल साबित' होता है।
उनके प्रवचनों को सुनना भी एक तरह की चिकित्सीय पद्धति से गुजरना है, जहां मन के अनेक घाव उनकी वाणी के जादुई प्रभाव से स्वतः ही भर जाते हैं। चूंकि मौलिक रूप से ये घाव हमारे भावों, विचारों, स्मृतियों आदि से भोजन पाते हैं और ओशो अपने प्रवचनों में इन सब बिमारियों को उघाड़ते हैं, जड़ से मिटाते हैं। उनकी वाणी का मखमली प्रभाव और प्रवचनों का मूल स्वरूप इस चिकित्सा को जन्म देता है।
इसके अतिरिक्त ओशो ने अनेक ग्रुप थैरेपीज की रचना की जैसेमिस्टिक रोज ग्रुप, नो माइंड, बॉर्न अगेन, हू इज इन आदि। ये तीन दिन से लेकर 21 दिन तक के बहुत सशक्त समूह कोर्स हैं जहां साधक को अपने भावों, विचारों, अचेतन जड़ता आदि में उतरने का अवसर प्राप्त होता है । वह स्वयं ही इस सारी यात्रा में गुजरते हुए, अपने मूल स्वरूप के निकट आता है और ध्यान की गहराइयों में भी डूबता है। अनेक एनकाउंटर थेरेपीज को भी ओशो ने साधकों पर आजमाया और व्यक्तिगत रूप से हजारों लोगों को उस व्यवस्था में भी दिशा दी । इस तरह से सिर्फ ध्यान की विधियों की रचना न कर उन्होंने ग्रुप थेरेपीज को साधकों के लिए निर्मित किया जो बहुत महत्त्वपूर्ण है और जरूरी भी है।
वैसे तो ओशो द्वारा सृजित ध्यान व्यवस्था का फलक बहुत बड़ा है और वर्गों में बंटता नहीं तब भी व्याख्या के लिए मौलिक रूप से तीन वर्गों में उन्हें रखा जा सकता है।
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