
अभिनेता जोक्विन फ़ीनिक्स ने फिल्म 'जोकर' के लिए ऑस्कर पुरस्कार जीता था। यह किसी भी अभिनेता के जीवन का सर्वोच्च क्षण होता है। लेकिन अपनी 'एक्सेप्टेंस स्पीच' में पता है उन्होंने क्या कहा? उन्होंने कहा, ‘हम आज इतने इगो-सेंट्रिक हो गए हैं हमें लगता है यूनिवर्स हमारे इर्द-गिर्द घूम रहा है। हम ख़ुद को इतना एनटाइटल्ड समझने लगे हैं कि हम एक गाय का कृत्रिम गर्भाधान कराते हैं और उसके बच्चों को उससे छीन ले जाते हैं, और हमें इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता।'
जोक्विन फ़ीनिक्स को कोई ज़रूरत नहीं थी यह सब कहने की। उन पर कोई दबाव नहीं था। कोई उनसे इसकी अपेक्षा नहीं कर रहा था। वह ऑस्कर पुरस्कारों का मंच था, पर्यावरणसंरक्षण या पशु-कल्याण आंदोलन का फ़ोरम नहीं । फिर भी उन्होंने उस मंच का इस्तेमाल अपनी आवाज़ को करोड़ों लोगों तक पहुंचाने के लिए किया। क्योंकि उन्हें एक नैतिक त्वरा की अनुभूति हुई थी। अपने जीवन के सर्वोच्च क्षण में उन्होंने एक गाय की तक़लीफ़ को याद रखा, जो कभी लौटकर उनसे शुक्रिया नहीं कहेगी। यह कैरेक्टर है !
जिस नेक बात को करने की हमसे उम्मीद की जाती है, उसे करना तो स्वाभाविक है। क्योंकि उसके पीछे एक सामूहिक संतुष्टि का तर्क काम करता है। लेकिन जिस भलाई को करने की अपेक्षा आपसे कोई नहीं करता और अगर आप न करें तो आपको उसके लिए कोई तोहमत देने वाला नहीं है, उसे करने से आपके वास्तविक चरित्र का पता चलता है।
लेखक जे. एम. कोएट्ज़ी पशुओं के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाते हैं। उन्हें इसकी क्या ज़रूरत है? वे उपन्यासकार हैं, एक नहीं दो बार बुकर पुरस्कार जीत चुके हैं, साहित्य का नोबेल पुरस्कार भी पा चुके हैं। वे दुनियाभर में पढ़े जाते हैं। एक लेखक का जो 'कॅरियर' होता है, उसमें वे टॉप पर पहुंचे हैं। वे अगर जानवरों के लिए नहीं बोलते तो कोई उनसे आकर कहने नहीं वाला था कि आपने क्यों नहीं बोला। इसके बावजूद कोएट्ज़ी ने अपनी किताबों में एनिमल एब्यूज पर लगातार बातें कीं और एक पूरी किताब इस विषय पर लिखी 'द लाइव्ज़ ऑफ़ एनिमल्स'।
هذه القصة مأخوذة من طبعة October 2024 من Aha Zindagi.
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वन के दम पर हैं हम
भौतिक विकास के रथ पर सवार मानव स्वयं को भले ही सर्वशक्तिमान और सर्वसमर्थ समझ ले, किंतु उसका जीवन विभिन्न जीव-जंतुओं से लेकर मौसम और जल जैसे प्रकृति के आधारभूत तत्वों पर आश्रित है।

दिखता नहीं, वह भी बह जाता है!
जब भी पानी की बर्बादी की बात होती है तो अक्सर लोग नल से बहते पानी, प्रदूषित होते जलस्रोत या भूजल के अंधाधुंध दोहन की ओर इशारा करते हैं।

वन का हर घर मंदिर
जनजाति समाज घर की ड्योढ़ी को भी देवी स्वरूप मानता है। चौखट और डांडे में देवता देखता है। यहां तक कि घर के बाहर प्रांगण में लगी किवाडी पर भी देवता का वास माना जाता है।

ताक-ताक की बात है
पहले घरों में ताक होते थे जहां ज़रूरी वस्तुएं रखी जाती थीं। अब सपाट दीवारें हैं और हम ताक में रहने लगे हैं।

किताबें पढ़ने वाली हीरोइन.
बॉलीवुड में उनका प्रवेश मानो फूलों की राह पर चलकर हुआ। उनकी शुरुआती दो फिल्मों- कहो ना प्यार है और ग़दर-ने इतिहास रच दिया। बाद में भी कई अच्छी फिल्मों से उनका नाम जुड़ा।

फ़ायदे के रस से भरे नींबू
रायबरेली के 'लेमन मैन' आनंद मिश्रा को कौन नहीं जानता! अच्छी आय की नौकरी को छोड़कर वे पैतृक गांव में लौटे और दो एकड़ कृषि भूमि पर नींबू की खेती करके राष्ट्रीय पहचान बनाई। प्रस्तुत है, उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी।

जहां देखो वहां आसन
योगासन शरीर को तोड़ना-मरोड़ना नहीं है, बल्कि ये प्रकृति की सहज गतियां और स्थितियां हैं। आस-पास नज़रें दौड़ाकर देखने से पता लगेगा कि सभी आसन जीव-जंतुओं और वनस्पतियों से ही प्रेरित हैं, चाहे वो जंगल का राजा हो, फूलों पर मंडराने वाली तितली या ताड़ का पेड़।

बांटने में ही आनंद है
दुनिया में लोग सामान्यत: लेने खड़े हैं, कुछ तो छीनने भी । दान तो देने का भाव है, वह कैसे आएगा! इसलिए दान के नाम पर सौदेबाज़ी होती है, फ़ायदा ढूंढा जाता है। इसके ठीक उलट, वास्तविक दान होता है स्वांतः सुखाय- जिसमें देने वाले की आत्मा प्रसन्न होती है।
बहानेबाज़ी भी एक कला है!
कई बार कितनी भी कोशिश कर लो, ऑफिस पहुंचने में देर हो ही जाती है, ऐसे में कुछ लोग मासूम-सी शक्ल बना लेते हैं तो कुछ लोग आत्मविश्वास के साथ कुछ बहाना पेश करते हैं। और बहाने भी ऐसे कि हंसी छूट जाए। बात इन्हीं बहानेबाज़ लोगों की हो रही है।

बहानेबाज़ी भी एक कला है!
कई बार कितनी भी कोशिश कर लो, ऑफिस पहुंचने में देर हो ही जाती है, ऐसे में कुछ लोग मासूम-सी शक्ल बना लेते हैं तो कुछ लोग आत्मविश्वास के साथ कुछ बहाना पेश करते हैं। और बहाने भी ऐसे कि हंसी छूट जाए। बात इन्हीं बहानेबाज़ लोगों की हो रही है।