गुलाम
Mukta|November 2022
विश्वविद्यालय में मधूलिका की सीनियर शिखा उन्मुक्त, आजाद खयालों की थी जो अपनी शर्तों पर जिंदगी जी रही थी. उस के लिए शर्म, हया औरतों के बंधन थे. गांव से आई मधूलिका के लिए यह सब अजीब था पर शिखा ने उसे औरत की आजादी और गुलामी की क्या परिभाषा बताई?
कुमुद कुमार
गुलाम

मुझ को जैसे ही यह खबर मिली कि मैं दिल्ली के एक मशहूर विश्वविद्यालय में एमफिल के लिए चयनित हो गई हूं तो खुशी के कारण मेरे पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. इस विश्वविद्यालय में एमफिल के लिए चयनित होने का मतलब सीधा सा था, कैरियर की ऊंची उड़ान. एमफिल के बाद पीएचडी और फिर किसी विश्वविद्यालय में प्रोफैसर के पद पर नियुक्ति, बड़ी पगार और सम्मान का जीवन.

मैं सपनों का महल बनाने लगी थी और उसे अब सच के धरातल पर उतारना भर था. मुझ जैसी देहाती लड़की के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी. यहां तो कोई पुलिस की नौकरी भी पा जाता है तो गांवभर में मिठाई बंटती है, नाचगाना होता है और इलाके में नाम हो जाता है.

विश्वविद्यालय में प्रवेश की सभी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद मुझे छात्रावास में कमरा नंबर 303 आवंटित किया गया. कमरे में सामान ले कर पहुंची तो हक्कीबक्की रह गई. कमरे की दीवारों पर अश्लील भाषा लिखी हुई थी, टौयलेट की दीवारों पर भारत के महापुरुषों के बारे में अपशब्द लिखे हुए थे. इसे देख कर ऐसा प्रतीत हुआ कि पिछली बार यहां पर कोई निहायत ही बदतमीज लड़की रही होगी जो मेरी नजरों में छात्रा कहलाने लायक भी नहीं थी.

मैं ने सफाईकर्मी को बुलाने के बजाय खुद ही एक गीले कपड़े से दीवारों पर लिखी अश्लील भाषा और अपशब्दों को मिटा दिया. आखिर देश के महापुरुष मेरे भी तो महापुरुष थे. यदि हम उन का आदर नहीं कर सकते तो उन का अपमान करने का भी तो हमें कोई अधिकार नहीं.

विश्वविद्यालय का महौल भी कुछ अजीबोगरीब लग रहा था, लेकिन यह सोच कर कि जल्दी ही मैं खुद को इस माहौल में ढाल लूंगी, मैं ने एक लंबी और गहरी सांस ली पर मुझे जल्दी ही यह एहसास हो गया कि इस विश्वविद्यालय के माहौल को मैं जितना असामान्य समझ रही थी, यह उस से भी अधिक असामान्य था. शाम के समय विश्वविद्यालय में अजीब सी मदहोशी छाने लगती थी. रातों के रंगीन होने की तो बातें ही क्या? ऐसी बातें सोच कर भी मेरे दिमाग में अजीब सी सिहरन दौड़ जाती थी.

هذه القصة مأخوذة من طبعة November 2022 من Mukta.

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