केरल ऐसे ही तजुर्बे से पहले भी गुजर चुका है. बहुत पहले 1959 में तब भाकपा (और बाद में माकपा) के दिग्गज नेता ई.एम.एस. नंबूदिरीपाद की अगुआई वाली सरकार और राज्यपाल बी. आर. राव के बीच तलवारें खिंच गई थीं. मुद्दे कई थे, पर मुख्य तकरार उस शिक्षा विधेयक को लेकर थी जिसका मकसद निजी शिक्षा क्षेत्र में कुछ सुधार लागू करना था. राज्यपाल इस विवादास्पद विधेयक को मंजूरी देने के लिए तैयार नहीं थे. कई संगठन और दबाव समूह भी इसका विरोध कर रहे थे. टकराव का नतीजा आखिरकार यह हुआ कि नंबूदिरीपाद की सरकार बर्खास्त कर दी गई और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. छह दशक से भी ज्यादा वक्त बाद इस दक्षिणी राज्य में पिनरई विजयन की अगुआई वाली वाम लोकतांत्रिक मोर्चे (एलडीएफ) की सरकार और राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बीच ऐसा ही टकराव देखने को मिल रहा है. इस बार भी झगड़े की जड़ शिक्षा क्षेत्र है. साफ कहें तो केरल सरकार के 13 विश्वविद्यालयों में उपकुलपतियों की नियुक्ति का मसला है.
अक्तूबर की 17 तारीख को खान ने राज्य के मंत्रियों को यह चेतावनी देकर राजनैतिक विवाद छेड़ दिया कि अगर उन्होंने राजभवन की “गरिमा गिराना" जारी रखा तो वे उन्हें हटाने से नहीं हिचकेंगे. फौरी उकसावा उच्च शिक्षा मंत्री आर. बिंदु का वह बयान था जिसमें उन्होंने राज्यपाल से उपकुलपतियों की नियुक्ति में राजभवन के अधिकारों को कम करने वाले विश्वविद्यालय कानून संशोधन विधेयक पर दस्तखत करने को कहा था. दो दिन पहले राज्य विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति की हैसियत से राज्यपाल ने केरल विश्वविद्यालय की सीनेट के 15 सदस्यों को इसलिए हटा दिया था क्योंकि उन्होंने उपकुलपतियों की चयन समिति को अपने नामजद लोगों के नाम नहीं भेजे थे.
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