यह ऐसा बखेड़ा था जिसे खड़ा किए बगैर भी भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) का काम चल सकता था. देश के केंद्रीय बैंक ने 8 जून को व्यावसायिक बैंकों को एक सर्कुलर जारी किया. इसमें कहा गया कि जानबूझकर कर्ज न चुकाने वाले (विल्फुल डिफॉल्टर) बैंकों और वित्त कंपनियों के साथ सुलह-समझौते से मामला निबटा सकते हैं; वे कर्जदाताओं से बकाया रकम बट्टे-खाते में डालने की भी मांग कर सकते हैं. विल्फुल डिफॉल्टर यानी वे लोग जो बैंकों से लिए गए कर्ज को चुकाने की क्षमता होने के बावजूद उसे न चुकाने का रास्ता चुनते हैं. रिजर्व बैंक ने बैंकों को यह भी निर्देश दिया कि वे समझौते से निबटारे की राह पकड़ने वाले कर्जदारों को नया कर्ज देने पर विचार करने से पहले कम से कम साल भर का कूलिंग पीरियड तय करें. हालांकि बाद में रिजर्व बैंक को यह साफ करने में खासी मुश्किल हुई कि यह निर्देश नया नहीं है. पर नया सर्कुलर जारी करने के समय और इसके मकसद को लेकर आम जनता के मन में पैदा संदेह दूर नहीं हुए. रिजर्व बैंक ने यह भी कहा कि सर्कुलर कर्ज न चुकाने वालों के लिए 'सामान्य निर्देश' था और विल्फुल डिफॉल्टर तथा धोखाधड़ी करने वाले इसके दायरे से बाहर थे. पर कइयों को अंदेशा था कि यह नई व्यवस्था इरादतन डिफॉल्टर्स को सुलह-समझौते से मामला रफा-दफा करने के साल भर बाद नया कर्ज लेना आसान बनाने की खातिर की गई.
लझन और आलोचना की वजह शायद रिजर्व बैंक के निर्देश की शब्दावली भी थी, जो इस प्रकार थी: बैंक "विल्फुल डिफॉल्टर या फ्रॉड के रूप में चिन्हित खातों को लेकर सुलह या तकनीकी रूप से उन्हें बट्टे-खाते में डालने का काम ऐसे बकायेदारों पर चल रही आपराधिक कार्यवाही का पूर्वाग्रह पाले बगैर कर सकते हैं." रिजर्व बैंक के सर्कुलर पर तीखी प्रतिक्रिया से हैरानी नहीं हुई, खासकर जब कथित तौर पर भारत की बैंकिंग व्यवस्था के साथ छलकपट करने वाले और हजारों करोड़ रुपए ले उड़ने वाले बड़े बकायादारों की याद आम लोगों के जेहन में अभी ताजा है. इनमें उद्योगपति विजय माल्या और हीरा कारोबारी नीरव मोदी तथा मेहुल चौकसी सरीखे 'तीन बड़े' भगोड़े शामिल हैं.
नंबरी छलिया
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