'परंपरा' बदलने की लड़ाई
India Today Hindi|October 25, 2023
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पूरा भरोसा है कि अपनी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के दम पर वे चुनावी वैतरणी पार करने में सफल रहेंगे. क्या वे राजस्थान में सत्ताधारी पार्टी को जीत हासिल न होने की परंपरा तोड़कर इतिहास रच पाएंगे?
रोहित परिहार
'परंपरा' बदलने की लड़ाई

अशोक गहलोत इतिहास बदलने को बेताब हैं. राजस्थान में तीन बार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने वाले 72 वर्षीय गहलोत पहले दो बार निवर्तमान सीएम के तौर पर हार का मुंह देख चुके हैं और अब उनकी भरसक कोशिश यही है कि 2023 में इसकी पुनरावृत्ति न हो. लेकिन 'परंपरा' बदलने की यह सियासी लड़ाई काफी कठिन है-पिछले चार चुनावों में राज्य की जनता ने कभी भी तत्कालीन सरकार को सत्ता में वापसी का मौका नहीं दिया है. शायद यही वजह है कि 6 अक्तूबर को राजस्थान विजन-2030 (सरकार का दावा है कि इसे तीन करोड़ सुझावों पर विचार के बाद तैयार किया गया है) जारी करते समय उन्होंने यह कहने से गुरेज नहीं किया कि पता नहीं तब राज्य पर कौन शासन कर रहा होगा. बहरहाल, गहलोत चाहते हैं कि उन्हें राजस्थान के 'कल्याणदाता' के तौर पर पहचाना जाए, और अपनी इसी छवि को गढ़ने की कवायद में उन्होंने सरकारी विज्ञापनों पर करोड़ों रुपए भी खर्च किए हैं. वे उत्साह के साथ बताते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी राजस्थान में अपनी रैलियों के दौरान गहलोत की कल्याणकारी योजनाओं को बंद न करने का वादा करना पड़ा है.

सीएम कहते हैं कि अब स्थितियां 2003 और 2013 से एकदम जुदा हैं, जब उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा था. उनका दावा है कि इस बार कोई सत्ता विरोधी लहर नहीं है, जैसा कि जनमत सर्वेक्षणों से जाहिर है कि थोड़ी बढ़त की स्थिति में नजर आ रही भाजपा के साथ टक्कर एकदम कांटे की है. उनके मुताबिक, इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि पहले साल से ही सरकारी योजनाओं का लाभ आखिरी छोर के लाभार्थियों तक पहुंचाने पर ध्यान केंद्रित किया गया, जबकि पहले यह काम केवल 'प्रतीकात्मक तौर पर संदेश भेजने' जैसा होता था. गहलोत कहते हैं, "मुझे लग रहा था कि भाजपा कभी भी हमारी सरकार गिरा सकती है और मध्यावधि चुनाव हो सकते हैं. मैं तो बस इसी कोशिश में लगा रहा कि जनता के सामने जाऊं तो मेरे पास गिनाने के लिए अपनी उपलब्धियां हों."

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