देश को आनन-फानन काले धन से निजात दिलाने की खातिर नरेंद्र मोदी सरकार के तड़क-भड़क वाले व्यापक कदम नोटबंदी के कुछ ही महीनों बाद 2017 के वित्त विधेयक में जब इलेक्टोरल बॉन्ड योजना पेश की गई, तो उसे "साफ-सुथरी नकदी के प्रवाह के जरिए राजनैतिक कामों के लिए मिल रहे धन को ज्यादा पारदर्शी बनाने" वाला कदम बताकर खूब ढिंढोरा पीटा गया था. लुब्बेलुबाब यह कि आप व्यक्ति हों, एनजीओ हों या कॉर्पोरेट कंपनी, भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआइ) से ब्याज मुक्त कर छूट प्राप्त ये बॉन्ड खरीदकर अपनी पंसद की राजनैतिक पार्टी को दान दे सकते थे और वह तय समय सीमा के भीतर उन्हें भुना सकती थी. यह पारदर्शिता अलबत्ता दानदाता की पहचान पर लागू नहीं थी, और वह गुमनाम बना रह सकता था. उस वक्त इस योजना के मुख्य वास्तुकार वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसके पीछे दलील यह दी थी कि दानदाताओं को "राजनैतिक पार्टियों के किसी भी बदले की कार्रवाई" से बचाने के लिए यह जरूरी था.
सुप्रीम कोर्ट ने 15 फरवरी को ऐतिहासिक कहकर सराहे जा रहे एक फैसले में इस चुनावी बॉन्ड योजना को असंवैधानिक करार देकर रद्द कर दिया. सरकार की पारदर्शिता की दलीलों को मानने से इनकार कर दिया गया. प्रधान न्यायाधीश डी. वाइ. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्तियों संजीव खन्ना, बी. आर. गवई, जे. बी. पारदीवाला और मनोज मिश्र की पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने 232 पन्नों के सर्वसम्मत फैसले में कहा कि कंपनियों की तरफ से राजनैतिक पार्टियों को असीमित चंदा देना स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव का उल्लंघन है, क्योंकि इससे कुछ निश्चित व्यक्तियों/कंपनियों को नीति निर्माण को प्रभावित करने के लिए अपने रसूख और संसाधनों का इस्तेमाल करने का मौका मिल जा सकता है. यह "एक व्यक्ति एक वोट" की अहमियत में निहित राजनैतिक समानता के सिद्धांत का उल्लंघन था. जजों ने अपने फैसले में कहा कि राजनैतिक चंदे के जरिए चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने की कंपनी की क्षमता किसी व्यक्ति की क्षमता के मुकाबले कहीं ज्यादा है. अदालत ने यह भी आदेश दिया कि भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआइ) 13 मार्च तक चंदा देने वालों के नाम सार्वजनिक करे.
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