नरेंद्र मोदी 10 जून को साउथ ब्लॉक के शिखर सत्ता-परिसर में पहुंचे तो गलियारे में कतारबद्ध खड़े प्रधानमंत्री कार्यालय में उनके साथ काम कर चुके अधिकारी तालियों से उनका स्वागत कर रहे थे. मोदी सीधे सादगी भरे कोने में स्थित अपने दफ्तर में गए और जिस पहली फाइल पर दस्तखत किए, वह पीएम किसान सम्मान निधि के तहत देश के 9.3 करोड़ किसानों को 2,000 रुपए की 17वीं किस्त जारी करने का आदेश था. इस मद में सरकारी खजाने से 20,000 करोड़ रुपए खर्च होंगे. मोदी के लिए यह सब खूब जाना-पहचाना है. आखिर वे पिछले 10 वर्षों से यहां हैं, यही कुछ कर रहे हैं. लेकिन इस बार एक साफ फर्क है. पिछले दो कार्यकाल के विपरीत, वे तीसरे कार्यकाल में गठबंधन सरकार के अगुआ हैं. आम चुनाव 2024 के गजब जनादेश ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को 543 सदस्यीय लोकसभा में 272 सीटों के साधारण बहुमत से पीछे रोक दिया. पार्टी को 240 सीटें मिलीं, जो जरूरी आधे आंकड़े से 32 कम हैं. इससे उसकी सरकार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के अपने 24 सहयोगियों की बैसाखी पर आ टिकी है, जिन्हें 53 सीटें मिली हैं.
लिहाजा, यह कई तरह की मजबूरियां, विरोधाभास और टकराव की संभावनाएं लिए हुए है, जिनसे मोदी को टकराना होगा. यकीनन, यह आसान कतई नहीं होगा. वे अब तक बहुमत वाली सरकारों की ही अगुआई करते रहे हैं, चाहे 2001 से 2014 तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे हों या 2014 से 2024 के बीच देश के प्रधानमंत्री. लेकिन मोदी ने इस धारणा को फौरन झटक दिया कि उनका गठबंधन की राजनीति से कोई साबका नहीं है. उन्होंने अपने करीबी सहयोगियों से कहा कि भिन्न वैचारिक आधार वाले दलों से वास्ता पड़ने का उनका पहला बड़ा अनुभव इमरजेंसी के दौरान का था, जब वे आरएसएस प्रचारक के रूप में मोरारजी देसाई, जॉर्ज फर्नांडीस, आरएसएस के नानाजी देशमुख जैसे प्रमुख विपक्षी नेताओं और यहां तक कि जमात-ए-इस्लामी के नेताओं के साथ कदमताल कर रहे थे, जो इमरजेंसी के विरोध में भूमिगत आंदोलन में शरीक थे. कथित तौर पर वे खुद को बचाए रख पाए थे.
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