उसी सप्ताह दुष्यंत चौटाला के नेतृत्व वाली जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) ने जाहिरा तौर पर लोकसभा चुनाव में सीटों पर समझौते को लेकर अपना रास्ता अलग कर लिया. फिर मई में तीन निर्दलीय विधायकों ने नई नायब सिंह सैनी सरकार से समर्थन वापस ले लिया, जिससे सरकार नाजुक बहुमत पर आ गई. लोकसभा चुनाव के नतीजों ने भी कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिया और राज्य की 10 सीटें भाजपा और कांग्रेस के बीच बराबरबराबर बंट गईं.
अब जबकि हरियाणा में विधानसभा चुनाव के लिए तैयारियां शुरू हो गई हैं, ऐसे में हरेक पक्ष राज्य की 90 सीटों पर दावा जमाने के लिए अपनी रणनीति को धार देने में जुट गया है. बेशक, इतिहास की घटनाएं इस बात की गवाह हैं कि राज्य ने किसी भी पार्टी को लगातार दो कार्यकाल से ज्यादा का मौका नहीं दिया है. अगर भूपिंदर सिंह हुड्डा के नेतृत्व वाली कांग्रेस के पास 2004 से 2014 तक सत्ता की कमान रही तो 2014 की मोदी लहर ने भाजपा को दो बार राज्य की सत्ता दिला दी. इस बार, भाजपा भी सत्ता में बने रहने का खामियाजा और हुड्डा के फिर से उभार जैसी दो चुनौतियों का सामना कर रही है. साफ है कि इतिहास को गलत साबित करने के लिए भाजपा को अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ेगी.
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