स्मृति - ज़ाकिर हुसैन 1951-2024
नश्वरता ने संगीत के ऊंचे किले पर धावा बोल दिया. दादरे की छठी और कहरवे की आठवीं ताल तक उंगलियां पहुंचतीं और वहीं से फिर पहले की ओर लौट पड़तीं: उसी सन्नाटे में जहां से उन्होंने प्रस्थान लिया था. अब उस सम से फिर आना नहीं होगा. उनके जीवन में लयात्मक क्रम में आए सारे बड़े स्तंभ- हर कोटि के पद्म सम्मान और चार ग्रैमी, जिनमें से तीन इसी साल मिले थे - स्तब्ध और लाचार खड़े रह गए.
प्रसिद्धि की सारी ध्वनियां भी धीरे-धीरे मंद पड़ती जाएंगी. पंडित कुमार गंधर्व ने जनवरी 1992 में अपनी मृत्यु से पहले कबीर की वाणी में हमें याद दिलाया था - जम के दूत बड़े मजबूत, जम से पड़ा झमेला...सैन फ्रांसिस्को का बादलों भरा धूसर आसमान बेबस ताकता रहा और तबले का महान उस्ताद प्रस्थान कर गया. कोई उसकी तरह नहीं था, और फिर कभी होगा भी नहीं. दो हफ्ते आइसीयू में बिताने के बाद भारतीय समयानुसार 16 दिसंबर को सुबह तड़के ज़ाकिर हुसैन की धड़कन ठहर गई.
ज़ाकिर खूबसूरत, घुंघराले बालों वाला, दिलकश और रूमानी खोजी था, जो अपने पिता उस्ताद अल्लारक्खा की दी और साझा की गई तालों से बहुत आगे गया. बंबई में दोनों को जुगलबंदी में सुनने के बाद मैंने ज़ाकिर से पूछा, "ईमानदारी से मुझे बता, कौन बेहतर वादक है, तुम या तुम्हारे डैड?" लंबी खामोशी छा गई, उसके चेहरे पर शरारती मुस्कान थी-उसने गहरी सांस ली - मेरी आंखों में देखा और कहा, "बेशक मैं." हम दोनों जोर से हंसे. मैंने कहा, "मैं भी यही सोचता हूं." ऐसा था उसकी उंगलियों का जादू जब वे तबले के किनारों पर कसकर बंधे तपे-तपाए चमड़े पर थिरकना शुरू करती थीं.
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