इधर आवेदन, उधर पासपोर्ट

थीं कितनी दुश्वारियां
नब्बे के दशक में उदारीकरण के बाद के आर्थिक उफान ने देश के सभी कोनों से पासपोर्ट की मांग को बढ़ा दिया. यह मांग देश में बढ़ते मध्यम वर्ग के लोगों से प्रेरित थी, जो शिक्षा, पर्यटन, व्यवसाय आदि के लिए विदेश यात्रा करने के इच्छुक थे. लेकिन तब विदेश मंत्रालय अपर्याप्त बुनियादी ढांचे और पुरानी प्रणालियों से जूझ रहा था, जिससे आवेदनों की प्रोसेसिंग में हफ्तों और यहां तक कि महीनों लग जाते थे. इसमें एक बड़ी अड़चन पुलिस सत्यापन प्रक्रिया थी, जो अकुशलता और भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात थी. खुले आम रिश्वत मांगी जाती थी और इनकार करने पर अक्सर जान-बूझकर देरी या बेजा बाधाएं डाली जाती थीं. समस्या को और जटिल बनाने वाले पासपोर्ट कार्यालयों की सीमित संख्या और लंबी कतारें थीं, जिससे बिचौलियों की मदद लेनी पड़ती थी. ऑटोमेशन या स्वचालन और विकेंद्रीकरण की शिशों के बावजूद मैन्युअल प्रक्रियाएं जारी रहीं. इसका नतीजा गड़बड़ियों और बेजा देरी के रूप में निकला. इससे प्रणालीगत सुधारों की फौरी जरूरत समझ आई.
यूं आसान हुआ जीवन
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बर्फ से ढके गुलमर्ग का नजारा है. मौका है द एली इंडिया फैशन शो का, जिसमें दिल्ली के डिजाइनर शिवन और नरेश के परिधान—टोपियां, पैंट सूट, स्कीवियर और हां बिकिनी भी—प्रस्तुत किए गए.