मैं और मेरे दोस्त मानते थे कि सर्कस के बाहर, कोलकाता में सबसे बड़ा 'जोकर' कोई है, तो वो मैं हूं। जब भी मैं मेरे कपड़ों के साथ कोई प्रयोग करना चाहता था, मेरा भाई और दोस्त कहते थे, "यदि तुम जोकर बनना चाहते हो, तो अकेले जाओ। हम तुम्हारे साथ नहीं आ रहे।" जब वे ऐसा कहते थे, मैं ज्यादा अड़ियल हो जाता था और जानबूझकर ज्यादा से ज्यादा ऐसे कपड़े चुनता था। मुझे लगता था, जोकर हंसी और निराशा का अजब संयोग है। पुते हुए चेहरे और लोगों को हंसाने की भरसक कोशिश के पीछे, आंसुओं का लंबा इतिहास छुपा है। यह मत सोचिए कि मैं खुद के बारे में बात कर रहा हूं। यदि किसी को मेरा पहनावा अजीब लगता है, तो आप इसका दोष मेरी खराब पंसद को दे सकते हैं।
रितुपर्णो घोष के संपादकीय 'फर्स्ट पर्सन' स्तंभ से लिया गया यह उद्धरण बांग्ला साप्ताहिक रोविवार (दिसंबर 20, 2009) में प्रकाशित हुआ था। यह लेख लिखते वक्त मेरी नजर इस कॉलम पर पड़ी और मैं थम गया। इस अंश में घोष ने 'क्वीर' के विचार को 'जोकर' के प्रतीक के रूप में बहुत ही करीने से उभारा है। अशांत, बेतुका या उपहासपूर्ण, दुखद।
'क्वीर' और विदूषक देखा जाए, तो एक-दूसरे से बहुत अलग नहीं हैं। दोनों की हंसी उड़ाई जाती है, दोनों दर्दनाक जीवन से जूझते हैं। इस अंश में, घोष ने 'क्वीर' शब्द का उपयोग नहीं किया बल्कि इसके लिए उन्होंने बांग्ला शब्द उद्भट का उपयोग किया, जिसका शाब्दिक अर्थ वही है। हालांकि, संपादकीय की अंतिम पंक्ति में, घोष ने मजाक में इस बात को नकार दिया कि लिखे हुए का उनके निजी जीवन से कोई लेनादेना है। पर वास्तव में वे अपने क्वीर होने (उनके विदूषकपन) को पुष्ट कर रहे थे, जो कई लोगों को हास्यास्पद और शर्मनाक लगता है। 29 शानदार फिल्में बनाने वाले घोष स्तंभकार, आलोचक, गीतकार, अभिनेता और टॉक शो के होस्ट के रूप में अपने पूरे करिअर में रूढ़ियों को तोड़ते रहे और उस ओर ध्यान दिलाते रहे, जिस पर अब तक बात नहीं की जाती थी।
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