पिछले साल मानसून में 5,000 से ज्यादा लोग मारे गए थे, सार्वजनिक संपत्ति का भारी नुकसान हुआ था। फिर ऐसी ही घटनाएं हुई हैं।
हिमालय अब जलवायु परिवर्तन का केंद्र बन चुका है। भूस्खलन, बादल फटना और अचानक आने वाली बाढ़ पहाड़ों के लिए नई बात नहीं है, लेकिन अब उसकी तीव्रता और बारंबारता बढ़ गई है। इसके चलते जानमाल का बड़ा नुकसान हो रहा है। इस बार बादल फटने के कारण शिमला और कुल्लू की सरहद पर बसा समेज गांव पूरी तरह बह गया। हमने बहुत त्वरित कार्रवाई की, राहत पहुंचाई और सेना, एनडीआरएफ, सीआइएसएफ, आइटीबीपी तथा राज्य पुलिस को वहां खोजी अभियान में लगा दिया। पचास लोग लापता हुए थे। यह घटना बड़ी तबाही है।
कारण तलाशने की कोशिश की?
सरकार नुकसान कम करने की दिशा में कोशिश कर रही है। हम आपदाओं को रोक नहीं सकते। पिछले साल हम सब सकते में थे। किसी ने भी ऐसी अप्रत्याशित तबाही की कल्पना नहीं की थी। सौ साल की रिकॉर्ड तोड़ बारिश सब बहाकर ले गई थी। अप्रत्याशित भूस्खलन हुए। पहाड़ धसक गए, मकान बह गए, इमारतें धंस गईं। ब्रिटिश राज की राजधानी शिमला तो हिल ही गई थी। जलवायु परिवर्तन तो इस सब के पीछे है ही लेकिन हम लोग भी ऐसे विनाश के लिए जिम्मेदार हैं।
ऐसे विनाश रोकने के समाधान क्या हों?
मुझे शिद्दत से महसूस होता है कि हिमालयी राज्यों और केंद्र को साथ आकर वैज्ञानिकों के साथ बातचीत के आधार पर लंबी दूरी के उपायों पर विचार करना चाहिए। राज्य सरकारें अपने स्तर पर प्रयास कर सकती हैं, लेकिन उनके पास इसके लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। हम लोग जनता को जागरूक कर रहे हैं कि खुद को कैसे सुरक्षित रखा जाए। ऐसी परिस्थितियों में उन्हें किस तरह की प्रतिक्रिया देनी चाहिए। हिमाचल प्रदेश में हमारी आपदा प्रतिक्रिया प्रणाली काफी मजबूत है।
पिछले साल के मानसून में हुए नुकसान का क्या आकलन रहा?
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