कुर्सी महा ठगिनी हम जानी
Outlook Hindi|October 28, 2024
आर्थिक उदारीकरण के पिछले तीन दशक के दौरान भारतीय राजनीति का चरित्र कुछ ऐसा बदला है। कि धन, सार्वजनिक आचरण से लेकर नेताओं का चरित्र तक सब कुछ महज कुर्सी के इर्द-गिर्द सिमट गया है और दलों का फर्क मिट गया है
हरिमोहन मिश्र
कुर्सी महा ठगिनी हम जानी

ताजा-ताजा हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनावी नतीजे चाहे जो कहते भले कुछ भी लगें, जनादेश हो, पर कुर्सी का मोह तब तक नहीं छूटता जब तक स्थितियां निगोड़ी बिल्कुल ही उलट न हो जाएं। तभी तो नतीजों की पूर्व-संध्या तक ये बोल फूटते दिखे कि एक्जिट पोल के अनुमान चाहे जो दिखाएं “सरकार हम बनाने जा रहे हैं।" या यह बड़बोला दावा कि “सारी व्यवस्था कर ली गई है।" या कुर्सी हासिल करने के पासे भी गजब गजब दलीलों से फेंके जा रहे थे। कहीं भूले से भी अहमक की तरह यह न सोच लीजिए कि यह पहली बार हो रहा है, याद कीजिए तो लंबा सिलसिला खुलकर सामने आ जाएगा। यही नहीं, इस दलील के भुलावे में भी न आइए कि यह तो हमेशा से होता आया है। जरूर होता आया है, मगर लगातार लोकलाज की हर परत ऐसे उतरती जा रही है कि दांतों तले उंगली आ जाए। दरअसल, राजनैतिक पार्टियां या नेता चाहे जो दावे कर आए हो, चाहे जो सिद्धांत बघार आए हों, अंत में कुर्सी ही सबसे अहम हो उठती है। और वह भी स्वार्थसिद्धि की खातिर, वरना चुनावों में हजारों करोड़ क्यों लुटाए जाते? फिर इस दौर में तो विरोधियों को खजाने से महरूम करने और अपनी झोली भरने की रूह कंपाने वाली तीन-तिकड़मों, कई बार वैधानिक से लगने वाले तरीकों को भी 'सब चंगा सी' कह दिया जाता है।

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