भारत की पुरुष क्रिकेट टीम का प्रदर्शन इन दिनों घर-घर में चर्चा और विश्लेषण का विषय है। हार के बाद अक्सर आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो जाता है। खिलाड़ियों, अंपायरों, मैदान और कई बार तो बेचारे कोच और मैनेजरों को भी घर में बैठकर आलोचना करने वाले ऐसे लोगों का सामना करना पड़ता है। इन चर्चाओं में खराब प्रदर्शन के लिए उन्हीं लोगों के इरादों, जज्बे और क्षमताओं पर सवाल खड़े किए जाते हैं, जिन्हें कुछ हफ्ते पहले महामानव बताया जा रहा था।
खेल के एक प्रारूप में शानदार कप्तानी करने वाला दूसरे प्रारूप में इतनी घटिया कप्तानी कैसे कर सकता है? या जो प्रतिभाशाली खिलाड़ी अपनी दृढ़ता और एकाग्रता के लिए मशहूर हो वह अचानक उलटा काम कैसे करने लगता है? ये सवाल क्रिकेट ही नहीं किसी भी भारतीय खेल के बारे में पूछिए और आपको एक जैसी कहानियां नजर आने लगेंगी। टीम वाले खेलों में भारत के प्रदर्शन में निरंतरता क्यों नजर नहीं आती? बड़ी खेल सफलताएं अक्सर किसी ऐसे व्यक्ति की वजह से ही क्यों मिलती हैं, जो प्रशिक्षण, कोचिंग या प्रशासन पर अलग से खर्च करता है? और हां, देश में वैश्विक स्तर पर कड़ी टक्कर देने वाले खिलाड़ी या टीम इतने कम क्यों नजर आते हैं? इस सबसे बढ़कर हमारे खेल संगठनों पर बड़ी तादाद में राजनेता क्यों काबिज हैं?
खिलाड़ियों से यह सब पूछिए तो वे घटिया सुविधाएं, अपर्याप्त प्रशिक्षण, संसाधनों की कमी, पोषण की कमी, कमजोर जीन्स, खराब प्रबंधन, ब्यूरोक्रेसी, सरकारी मदद पर निर्भरता जैसी तमाम वजहें गिनाने लगेंगे। उनकी बात सही हो सकती है मगर यह गहरे तक पसरी सांगठनिक दिक्कत की ओर इशारा करती है। अगर हम इसे सही नहीं करते तो साल-दो साल में हमें एक-दो खेलों में एकाध अच्छा नतीजा मिल सकता है मगर संगठन के स्तर पर दिक्कत बनी रहेगी और घटिया प्रदर्शन तथा निरंतरता की कमी भी दिखती रहेगी।
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