जब हम कहते हैं कि 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतंत्र हुआ था, तो समझना चाहिए कि यह दिन सदियों के संघर्ष और बलिदानों का परिणाम था। सैकड़ों वर्षों के संघर्ष और राष्ट्र की अंतरात्मा अर्थात 'स्व' के पुनर्जागरण का परिणाम। सहस्रों बलिदानों का फल मिला और भारतमाता के पैरों में बंधी बेड़ियां टूट गईं। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि यह वह स्वतंत्रता नहीं थी, जिसकी कल्पना देश के लिए बलिदान देने वाले वीरों ने की थी। देश तीन टुकड़ों में टूट चुका था। जो बचा हुआ भारत मिला, वह भी कितना संप्रभु और स्वाधीन था, इस पर आज भी बहस जारी है। फिर भी यह एक सकारात्मक आरंभ था। भारत उन कुछ देशों में है, जिसने सबसे पहले ब्रिटिश दासता से मुक्ति पाई। भारत का स्वतंत्रता आंदोलन अन्य उपनिवेशों के लिए भी प्रेरणा बना।
भारत की स्वतंत्रता के बाद से ही इतिहासकारों के एक वर्ग ने इसका सारा श्रेय वर्ष 1885 में स्थापित कांग्रेस पार्टी को देना शुरू कर दिया। कुछ बहुत उदार हुए तो उन्होंने स्वतंत्रता के संघर्ष को वर्ष 1857 की क्रांति से आरंभ हुआ माना। लेकिन ये दोनों ही विचार असत्य और अन्यायपूर्ण हैं। स्वतंत्रता का संघर्ष इससे कहीं अधिक पुराना और व्यापक था। लेकिन आज भी अधिकांश लोग इस सत्य से अनजान हैं। वामपंथियों द्वारा लिखी स्कूली पुस्तकों में तो प्रयासपूर्ण ढंग से उन वीरों की कथाएं दबाई या हटाई गईं, जिन्होंने उस चिंगारी को जलाए रखा, जो बाद में क्रांति की ज्वाला बनी।
1857 स्वतंत्रता का पहला युद्ध नहीं
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शिक्षा, स्वावलंबन और संस्कार की सरिता
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वामपंथियों ने छत्रपति शिवाजी की जयंती पर भाग्यनगर में उनका पोस्टर लगाया, तो दिल्ली के जेएनयू में इन लोगों ने शिवाजी के चित्र को फाड़कर फेंका दिया। इस दोहरे चरित्र के संकेत क्या हैं !
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