हाल में आई फिल्मों कंतारा और पेन्नियन सेलवन-1 की सफलता से बॉलीवुड बनाम दक्षिण भारतीय सिनेमा की बहस को और बल मिल गया है। एक तरफ दक्षिण भारतीय फिल्में न केवल विदेशों तक में अपना वर्चस्व बढ़ा रही हैं, वहीं बॉलीवुड फिल्मों के दर्शक तेजी से छिटकते जा रहे हैं।
स्पष्ट है कि हिन्दी फिल्मों की सामग्री और प्रस्तुतीकरण में बीते कई वर्षों से वह बात नहीं दिख रही, जो दर्शकों को दक्षिण की फिल्मों में भाने लगी है। लगातार एक ही ढर्रे वाली हिन्दी फिल्मों की विफलता यह बताने के लिए काफी है कि बॉलीवुड के अधिकतर फिल्मकार बीते सात वर्ष से अभी तक यह नहीं समझ पाए हैं कि उनके दर्शकों की पसंद क्यों और किस रूप में बदल रही है। या लगता है कि वे समझना ही नहीं चाहते। वरना बाहुबली की विश्वव्यापी सफलता के बाद हिन्दी फिल्मों की विषय-वस्तु और प्रस्तुतीकरण में थोड़ा भी बदलाव तो दिखता।
बॉलीवुड का फिल्म उद्योग, स्टार सिस्टम के आगे पूरी तरह से घुटनों पर है। कमाई की बात छोड़ भी दें, तो कोई एक फिल्म तो ऐसी हो जिसे देखने के बाद बार-बार देखने की इच्छा हो। वहीं दक्षिण भारतीय फिल्मकार अलग-अलग विषयों के साथ प्रयोग करने से नहीं चूक रहे। वहां, पोन्नियन सेलवन जैसी पौराणिक ऐतिहासिक फिल्म बन रही है, तो कार्तिकेय के केन्द्र में धर्म, आस्था और आधुनिकता का मेल दिखाई देता है। वहां एक तरफ अगर आरआरआर जैसी देशभक्ति से सराबोर फिल्म पूरी दुनिया में सफलता और सुर्खियां पाती है, तो पुष्पा और केजीएफ 2 जैसी मसालेदार-मारधाड़ वाली फिल्में भी बन रही हैं, जो गारंटी के साथ अपने दर्शकों का मनोरंजन करने में सफल हैं। इनके मुकाबले बॉलीवुड मौलिक तो छोड़िए, दक्षिण और विदेशी फिल्मों के रीमेक भी ठीक नहीं बना पा रहा। आमिर खान की लाल सिंह चड्ढा और हितिक रोशन एवं सैफ अली खान की विक्रम वेधा, फ्लॉप रीमेक के ताजा उदाहरण हैं।
"फिल्मों में भारतीयता समाप्त होती जा रही है। भारतीय चित्र साधना का उद्देश्य भारतीय फिल्मों में भारतीयता को पुनर्स्थापित करना है। भारत के पास विश्व को देने के लिए,दिखाने के लिए बहुत कुछ है। - सुभाष घई, फिल्म निर्माता-निर्देशक
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