पाञ्चजन्य के आयोजन 'मुंबई संकल्प' का एक सत्र विभिन्न विदेशी आक्रांताओं और उनसे भारत का बचाव करने वाली भारत की ज्ञान परम्परा और भारत के दर्शन पर केन्द्रित था। सत्र को संबोधित किया फिल्म निदेशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने। उनसे मंच पर बातचीत की पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर ने। सत्र के आरम्भ में द्विवेदी ने भारत पर हुए आक्रमणों का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि भारत पर आक्रमण का इतिहास बहुत पुराना है। पहला आक्रमण मैसेडोनिया के शासक अलेक्जेंडर ने किया। इसके बाद सन् 712 या 715 में पहला इस्लामिक आक्रमण हुआ। फिर 1191, 1192 और उसके बाद लगातार आक्रांताओं के हमले हुए। प्रश्न यह है कि हमें समस्या किससे है? इन आक्रमणों का भारत पर क्या असर पड़ा?
देश को बाहर और भीतर से चुनौती
चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने कहा कि इन आक्रमणों से भारत को तब तक अंतर नहीं पड़ा, जब तक आक्रांताओं ने इसकी आस्था, विश्वास, इसके मानस व दर्शन को नहीं छुआ। जब छुआ तो उसका विरोध हुआ। जब-जब इस मानसिकता के साथ भारत पर आक्रमण हुआ कि उनकी सभ्यता-संस्कृति श्रेष्ठ है और भारत की या हिंदू संस्कृति श्रेष्ठ नहीं है, तब हमारा उन आक्रांताओं से जबरदस्त संघर्ष हुआ, जो अभी भी जारी है। दुर्भाग्य से, पहले आक्रांता बाहरी थे और अब तो भीतर भी मौजूद हैं, जो बार-बार देश और देश के लोगों को चुनौती देते हैं। उन्होंने कहा कि 17 साल के चंद्रगुप्त ने अलेक्जेंडर का सामना किया। 21 की उम्र में वह भारत का पहला ऐतिहासिक सम्राट बना और तीन वर्ष के भीतर भारत से ग्रीक साम्राज्य को समूल उखाड़ फेंका। बाद में सन् 305 में सेल्युकस निकेटर आक्रमण के उद्देश्य से आया, पर उसने आक्रमण नहीं किया। कहने का तात्पर्य यह है कि वह दर्शन और विचार कैसा था, जिसने भारत को सुरक्षित रखा! यदि राष्ट्र की व्यवस्था, समाज की व्यवस्था अच्छी है और सुरक्षित है, तभी वह इन आक्रांताओं से लड़ पाएगा। यदि समाज व्यवस्थित नहीं है, समाज की सुरक्षा व्यवस्थित नहीं है तो समाज आक्रांताओं से नहीं लड़ पाएगा। आश्चर्य है कि अक्सर आक्रांताओं को बाहर से नहीं, बल्कि भीतर से मदद मिली।
ईसा पूर्व 400 साल पहले की व्यवस्था
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