हल्द्वानी में रेलवे की भूमि से कब्जाधारियों को हटाने के उत्तराखंड उच्च न्यायालय के आदेश पर सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले दिनों रोक लगा दी। रेलवे अधिकारियों ने उच्च न्यायालय के आदेश के आधार पर बेदखली के नोटिस जारी किए थे। पहले देखिए इस पर मीडिया ने क्या किया। 'रेलवे की भूमि' को 'रेलवे द्वारा दावा की गई भूमि' लिखा। यानी रेलवे की शिकायत को ही संदिग्ध बना डाला। फिर वहां कब्जा करने वालों के लिए लिखा कि 'वे लोग सरकारी अधिकारियों द्वारा मान्यता प्राप्त वैध दस्तावेजों के आधार पर वर्षों से क्षेत्र में रह रहे हैं।' मतलब वे 'बेचारे' हैं और सरकारी प्रताड़ना के शिकार हैं। फिर मीडिया का अगला दांव था - इस मामले को भारतीय जनता पार्टी बनाम मुस्लिम बनाना। जिन मीडिया घरानों पर आमतौर पर संदेह किया जाता है, उन्होंने ही इस कोशिश में अग्रणी भूमिका निभाई। कुल मिलाकर वे अतिक्रमण को जायज भले ही न ठहरा सके हों, लेकिन उसे समाप्त करने को नाजायज ठहराने में उन्होंने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
अब आएं सर्वोच्च न्यायालय पर। शीर्ष अदालत ने यह कह कर कि "7 दिनों में 50,000 लोगों को नहीं हटाया जा सकता है", उच्च न्यायालय के निर्देश पर आपत्ति जताते हुए रोक लगा दी और अगली तारीख दे दी। अदालत ने मामले को 7 फरवरी, 2023 तक के लिए स्थगित कर दिया है और राज्य व रेलवे को एक 'व्यावहारिक समाधान' खोजने के लिए कहा है। जिस किसी को भी इसका निहितार्थ समझने में रुचि हो, वह देख सकता है कि मीडिया की तरह यहां भी अतिक्रमण को समाप्त करने के प्रयासों को नाजायज ठहराने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। सबसे रोचक है- लोगों को हटाना 'व्यावहारिक' नहीं है और 'व्यावहारिक समाधान' खोजा जाना है। क्या अर्थ हुआ ? वास्तव में जो कुछ मीडिया में हुआ, उसकी सीधी प्रतिच्छाया अदालत में देखी जा सकती थी। संदिग्ध मीडिया घरानों की तरह, जिन लोगों पर आमतौर पर संदेह किया जाता है, वे ही लोग सर्वोच्च न्यायालय में सक्रिय नजर आए। जैसे- कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद, प्रशांत भूषण आदि। जैसे मीडिया ने इस मामले को भारतीय जनता पार्टी बनाम मुस्लिम बनाने की कोशिश की, ठीक वही माहौल सर्वोच्च न्यायालय में देखा गया।
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