भक्ति, वात्सल्य एवं शृंगार के परिचायक महाकवि सूरदास
Jyotish Sagar|May 2024
पुष्टिमार्गीय भक्ति के दार्शनिक स्वरूप को सूरदास जी ने भली-भाँति समझा था तथा समझकर काव्य की भाव भूमि पर उसे प्रेषणीय बनाने के लिए वात्सल्य रस का अवलम्बन लिया।
डॉ. हनुमान प्रसाद उत्तम
भक्ति, वात्सल्य एवं शृंगार के परिचायक महाकवि सूरदास

दि निष्काम भक्ति का प्रतीक कोई भाव है, तो वह है 'वात्सल्य भाव'। इसमें स्वार्थ की कहीं कोई गन्ध नहीं। हालाँकि यही समस्त भक्ति में श्रेष्ठ भाव कहलाता है। यह एक ऐसा भाव है, जो प्राणी मात्र में पाया जाता है। यही भक्ति का सर्वशुद्ध भाव है, जिसमें न तो विरक्ति की भावना है तथा न इन्द्रिय सुख की लालसा लोक धर्म का उल्लंघन भी इसमें नहीं होता।

सूरदास जी के काव्य में वात्सल्य के आश्रय बालकृष्ण हैं। कृष्ण भक्त कवियों में सूरदास जी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनका जन्म सन् 1478 ई. में हुआ था। इन्होंने श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का बड़ा ही मनोरम वर्णन किया है। ये वल्लभाचार्य के शिष्य थे। 'सूरसागर' नामक ग्रन्थ में इनके पद संकलित हैं। इनकी अन्य रचनाएं हैं : 'सूर सारावली' तथा "साहित्य लहरी"। इनका निधन सन् 1584 में हुआ।

सूर का बाल वर्णन भारतीय वाक्य में बेजोड़ है तथा सांसारिक साहित्य में अति उत्कृष्ट है। सूरदास के बाल वर्णन पर मुग्ध आचार्य शुक्ल का बयान है "जितने विशद् तथा विस्तृत रूप में बाल्य जीवन का चित्रण सूरदास जी ने किया है, उतने विस्तृत रूप में किसी कवि ने नहीं किया। उनके साहित्य में एकमात्र बाह्य रूपों तथा चेष्टाओं की ही विस्तृत तथा सूक्ष्म उल्लेख नहीं है, वरन् सूरदास जी ने बालक कृष्ण के अन्तः स्वभाव में भी प्रवेश किया तथा तमाम बाल्य भावों की सुन्दर नैसर्गिक व्यंजना की है।"

यशोदा हरि पालने झुलावै।

हलरावै दुलराई मल्हावे जोई सोई कछु गावै ।।

هذه القصة مأخوذة من طبعة May 2024 من Jyotish Sagar.

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