सावन या श्रावण मास वर्ष का पाँचवाँ महीना होता है और जन्मपत्रिका का पंचम भाव प्रेम, सन्तान, पूर्वपुण्य और इष्टदेव का होता है। कहा जाता है कि जब समुद्र मन्थन चल रहा था, तो उस समय श्रावण मास था और जब मन्थन से हलाहल विष निकला और भगवान् शिव ने उसे ग्रहण किया, तब माता पार्वती ने विष को उनके गले में रोक दिया था, जिससे विष उदर तक नहीं पहुँच सका, जिससे भगवान् शिव 'नीलकण्ठ' कहलाए. लेकिन हलाहल विष गले में रुककर भगवान् शिव को पीड़ा देने लगा। उस पीड़ा शिव को बचाने के लिए तीन से भगवान् घटनाएँ हथीं।
1. चन्द्रदेव जो कि समुद्र मन्थन से निकले थे, वे भगवान् शिव के मस्तक पर विराजमान हुए, जिससे भगवान् को शीतलता मिले और इसलिए भगवान् शिव को 'चन्द्रशेखर' कहा जाता है।
2. देवताओं ने वर्षा की ताकि भगवान् शिव को शीतलता मिले। श्रावण मास में भगवान् शिव के जलाभिषेक का विशेष महत्त्व है।
3. उस समय का भगवान् शिव का कोई महान भक्त (शायद रावण) कांवड़ में गंगाजल लेकर आया और भगवान् शिव को चढ़ाया, जिससे भगवान् शिव हलाहल विष से पीड़ामुक्त हुए।
श्रावण मास में ही मार्कण्डेय ऋषि ने भगवान् शिव की तपस्या की थी। जिस प्रकार सतयुग में ब्रह्माजी का, त्रेतायुग में सूर्यदेव का और द्वापर युग में भगवान् विष्णु का अधिक प्रभाव होता है, उसी तरह कलियुग में गौरीपति भगवान् शिव का विशेष महत्त्व होता है। भगवान् विष्णु सृष्टि के पालनकर्ता हैं, लेकिन आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी जिसे 'देवशयनी एकादशी' भी कहते हैं, से भगवान् विष्णु चार माह के लिए योगनिद्रा में चले जाते हैं, जिससे सृष्टि के पालन की जिम्मेदारी भगवान् शिव पर आ जाती है। इसलिए भी सावन मास में भगवान् शिव की विशेष आराधना की जाती है।
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जो मनुष्य मेरे द्वारा स्थापित किए हुए इन रामेश्वर जी के दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएँगे और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ाएगा, वह मनुष्य तायुज्य मुक्ति पाएगा अर्थात् मेरे साथ एक हो जाएगा।
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