ईर्ष्या चाहे किसी भी व्यक्ति से की जाय वह दुःखदायी और घातक तो अवश्य है परंतु ईर्ष्या जब गुरु से हो जाय तो वह ईर्ष्या से का सर्वाधिक भयंकर रूप है। ईर्ष्या की वृत्ति इतनी व्यापक है कि वह गुरु के प्रति भी हो सकती है।
रामायण में काकभुशुंडिजी और गरुड़जी के संवाद में ईर्ष्या के उस परम भयानक स्वरूप का वर्णन आता है :
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं।
रौरव नरक कोटि जुग परहीं ॥
'जो मूर्ख गुरु से ईर्ष्या करते हैं वे करोड़ों युगों तक रौरव नरक में पड़े रहते हैं।'
(श्री रामचरित. उ.कां. : १०६.३)
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