समस्त भारतवर्ष में खुशी एवं उमंग से मनाए जाने वाले पर्व दीपावली का खास आकर्षण 'दीपक' ही होता है। इसके बिना तो जैसे दीपावली की कल्पना भी करना कठिन है जिसके पीछे तर्क दिया जाता है कि जहां-जहां महालक्ष्मी प्रकाशमान घर-द्वार देखती हैं, वहां-वहां उनका जाना निश्चित होता है। इसलिए उस दिन प्रत्येक जगह को दीपकों से सजाया जाता है।
एक समय था जब दीपोत्सव घी के दीये जलाकर ही मनाने की परंपरा थी। दीपक भी मिट्टी के नहीं अपितु सोने तथा चांदी के होते थे जिसकी कलात्मकता एवं सौंदर्य देखते ही आंखें चौंधिया जाती थीं। इसकी जगह बाद में तांबे, लोहे, मिट्टी, मोमबत्ती और अब बिजली के बल्बों ने ले ली। आज न सोने-चांदी के दीपक रहे और न ही घी इतना सस्ता रहा कि उसे खाने की बजाय जलाने के संदर्भ में कल्पना की जाए। यथार्थ तो यह है कि आज मिट्टी भी तेल के भाव है, किंतु दीपावली तो मनानी ही है। इसलिए लोगों को सबसे बेहतर उपाय यही नजर आया कि बिजली के बल्ब ही जला दिए जायें। कुमकुमों की यह रोशनी भी देखने में कम खूबसूरत नहीं किंतु फिर भी दीपकों सी गरिमा का अनुभव कर पाना संभव नहीं दिखता।
संस्कारों से जुड़े हैं दीपक
बहरहाल, बदलते समय के साथ दीपकों के रूप तथा आकार में किस भांति बदलाव आता गया, यह जानने के लिए दीपकों की दुनिया पर एक नजर डालते हैं। दीपकों को यूं तो हिंदू लोकाचार की आत्मा स्वीकार किया गया है। श्वेताश्वतार उपनिषद में कहा गया है कि 'दीप ही अग्निदेव है, दीप ही सूर्य है, दीप ही आयु है, दीप ही चंद्रमा है। दीप ही ब्रह्म का बीज है तथा दीप ही खुद ब्रह्मदेव है।' दीप का हमारे सामाजिक तथा पारिवारिक जीवन में कितना महत्त्व है, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जब किसी शिशु का परिवार में जन्म होता है तब प्रसूतिगृह में मिट्टी का दीया ही जलाया जाता है। इसके बाद के कई संस्कारों के समय भी दीपक ही प्रज्जवलित किया जाता है। यही नहीं, जब व्यक्ति संसार में अपनी जीवन लीला समाप्त करता है तब उसका अंतिम संस्कार भी दीप यानी अग्नि से संपन्न होता है।
Diese Geschichte stammt aus der November 2023-Ausgabe von Sadhana Path.
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