यह सार्वजनिक भर्त्सना का हैरतअंगेज नजारा था. 1948 में अंग्रेजों से आजाद होने के बाद श्रीलंका ने कई जनविद्रोह देखे. मगर कभी किसी लोकप्रिय नेता को इस तरह नहीं निकाला गया जैसे हाल ही में राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को बेदखल किया गया. जब सड़कों पर नाराज प्रदर्शनकारियों का सैलाब उमड़ पड़ा, लाखों लोगों ने ऐतिहासिक कोलंबो फोर्ट के भीतर क्वींस हाउस कहे जाने वाले राष्ट्रपति आवास पर धावा बोल दिया. राजपक्षे को कोलंबो छोड़कर भागने को मजबूर कर दिया गया. 13 जुलाई को देश में आपात स्थिति घोषित कर दी गई और 20 जुलाई को संसद में नए राष्ट्रपति का चुनाव होने तक प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को कार्यवाहक राष्ट्रपति बना दिया गया. फिर भी श्रीलंका की दुश्वारियां खत्म नहीं हुईं और एक के बाद एक संकट से लाचार देश आर्थिक पतन और राजनैतिक अराजकता की कगार पर खड़ा है.
विडंबना यह है कि गोटाबाया राजपक्षे और हाल ही तक प्रधानमंत्री रहे उनके भाई महिंदा की खौफनाक तमिल चीतों को हराने के लिए नायकों की तरह जयजयकार की जाती थी. देश भर में विरोध तेज होने के साथ दोनों को ही इस्तीफा देना पड़ा. तो आखिर यह नौबत क्यों आई? जैसा कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के सलाहकारों ने कहा था, “यह अर्थव्यवस्था है, मूर्ख". अर्थव्यवस्था की बदइंतजामी ने ताकतवर राजपक्षे घराने की किस्मत के दरवाजे बंद कर दिए. यह तकरीबन तभी शुरू हो गया था जब गोटाबाया ने नवंबर 2019 में राष्ट्रपति का चुनाव जीता. चुनावी वादे पूरे करने के लिए उन्होंने बेहद उदारता से करों में कटौती की और लोगों से कहा गया कि इससे वृद्धि तेज होगी, पर असल में हुआ यह कि इससे अरबों रुपए के राजस्व का नुक्सान हुआ.
Diese Geschichte stammt aus der July 27, 2022-Ausgabe von India Today Hindi.
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नहरें: थीं तो बेशक ये पानी के ही लिए
सीवान शहर के पास जुड़कन गांव के कृष्ण कुमार अपने गांव में खुदी पतली-सी नहर की पुलिया पर बैठे मिले. ऐन नहर के किनारे उनका पंपसेट लगा था, जिससे वे अपने खेत की सिंचाई कर रहे थे. वे नहर के बारे में पूछते ही उखड़ गए और कहने लगे, \"50 साल पहले नहर की खुदाई हुई थी. हमारे बाप-दादा ने भी इसके लिए अपनी जमीन दी. हमारा दस कट्ठा जमीन इसमें गया. जमीन का पैसा मिल गया था. मगर इस नहर में एक बूंद पानी नहीं आया. सब जीरो हो गया, जीरो पानी आता तो क्या हमको पंपसेट में डीजल फूंकना पड़ता.\"