भूमि, जंगल, पहचान, आस्था: भारत के आदिवासी समुदायों से संबंधित विषय उतने ही पुराने और अपरिवर्तित लगते हैं जितने कि छोटानागपुर के जंगल, जहां 1895 की एक बरसाती रात में बिरसा मुंडा नाम के एक 21 वर्षीय युवक को दिव्य बोध हुआ था. यह एक उल्लेखनीय कहानी की शुरुआत और आदिवासी इतिहास का महत्वपूर्ण मोड़ था. लेकिन चुनावी लोकतंत्र के साथ अब बिरसा मुंडा की पहचान राजनैतिक भी है.
बिरसा का नाम एक ऐसा रूपक है, जो एक बड़ी आबादी के लिए भावनात्मक पुल जैसा काम करता है. इसीलिए, हम देखते हैं कि भाजपा ने अब उन्हें भारत के आदिवासियों तक पहुंच बनाने के केंद्र बिंदु के रूप में अपना लिया है-वही आदिवासी वर्ग जिसके असंतोष को राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो यात्रा के बीच सूरत (गुजरात) में चुनाव प्रचार अभियान के दौरान अपने पक्ष में जोड़ने की कोशिश की थी. अगर झारखंड में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन अपने लोगों के इस पवित्र प्रतीक पुरुष के प्रति श्रद्धा व्यक्त कर रहे हैं, तो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भी उस शून्य को भरने की कोशिश कर रही हैं जो उन्होंने राज्य के जंगलमहल आदिवासी क्षेत्र में नंदीग्राम आंदोलन के दिनों के बाद छोड़ा था.
यकीनन इन सभी दलों में सबसे ज्यादा दूरी भाजपा को त करनी है. हिंदी पट्टी में उसने राम के नाम पर राजनैतिक लाभ अर्जित किया था. वहां से चल कर ईसाई संदेशवाद, प्राचीन जनजातीय धर्म सरनावाद और वैष्णव शुद्धता के तत्वों को मिलाकर अपना नया धर्म शुरू करने वाले बिरसा के नाम पर प्रचार करना एक बड़ी रणनीतिक छलांग है.
Diese Geschichte stammt aus der December 07, 2022-Ausgabe von India Today Hindi.
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