कानून 44 के शासन से शासित एक संवैधानिक लोकतंत्र में, स्वतंत्र न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में और करीब 73 वर्षों के करियर के साथ भारतीय न्यायपालिका की भूमिका विविध प्रकार की और बहुआयामी रही है. भारतीय संवैधानिक इतिहास के 'सबसे महत्वपूर्ण 10 फैसलों' की सूची बनाना कठिन कार्य है, क्योंकि चयन का कोई भी मानदंड अपना लिया जाए, उस पर सबकी सहमति कभी नहीं बनने वाली. इसलिए, इस सूची को चर्चा के आमंत्रण के रूप में लिया जाना चाहिए, न कि फैसले के तौर पर (आखिरकार, फैसला करने का काम तो अदालतों का है!)
मेरा मानना है कि संविधान और संविधानवाद तब अपने सबसे अच्छे स्वरूप में होते हैं जब वे राज्य और समाज दोनों के शक्ति संबंधों पर सवाल उठाते हैं और सार्वजनिक तथा निजी शक्ति का लोकतंत्रीकरण करने की मंशा रखते हैं. मैंने अपनी सूची में 10 ऐसे निर्णयों को रखा है जिनके बारे में मेरा मानना है कि फैसला एक कठोर और विवेकपूर्ण तरीके से किया है और इसलिए मेरी नजर में ये सबसे महत्वपूर्ण हैं (मेरा तात्पर्य इनके अध्ययन, अनुकरण, आगे की चर्चा के योग्य होने के रूप में है). इस अंश को किसी संत-महात्मा की जीवनी के रूप में नहीं पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि सालों से न्यायपालिका का रिकॉर्ड खराब रहा है. इस लेख के जरिए मात्र उन पलों को दिखाने की एक कोशिश हुई है जब संविधान - और अदालतें - अपने सबसे बेहतर रूप हमारे सामने आईं.
मेरी सूची में पहला मामला पीयूडीआर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1982) का है. सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला दिल्ली में 1982 एशियाड के लिए निर्माण परियोजनाओं में बंधुआ मजदूरी के उपयोग से संबंधित था. अन्य बातों के अलावा, पीयूडीआर में अदालत ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 23 जबरन मजदूरी के खिलाफ गारंटीकृत अधिकार प्रदान करता है और इसमें न्यूनतम मजदूरी का अधिकार शामिल है, जो एक निजी नियोक्ता के खिलाफ लागू किया जा सकता है; ऐसा इसलिए था क्योंकि न्यूनतम वेतन से नीचे काम करने वाले किसी भी व्यक्ति को वास्तव में 'मुक्त' नहीं कहा जा सकता. अदालत के तर्कपूर्ण फैसले ने पूंजीपतियों और मजदूरों के बीच असमान शक्ति संबंधों के संदर्भ में ताकत और स्वतंत्रता की अवधारणाओं को समझने के लिए नया आधार दिया.
Diese Geschichte stammt aus der January 04, 2023-Ausgabe von India Today Hindi.
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