एकनाथ शिंदे के लिए सब कुछ सही दिखने के बावजूद असहजता का एहसास उनका पीछा नहीं छोड़ता नहीं दिख रहा. उन्हें मुख्यमंत्री भले बना दिया गया हो, लेकिन उन्हें भाजपा की ओर से उनकी औकात दिखाने की तरकीबों से जूझना पड़ता है. उन्हें इस धारणा से भी खुद को निकालना पड़ रहा है कि सत्ता होते हुए भी उनके पास अधिकार नहीं हैं. यही नहीं, चुनाव आयोग ने उनके धड़े को आधिकारिक शिवसेना का दर्जा और उसका चुनाव चिह्न धनुष-बाण भले दे दिया हो लेकिन सहानुभूति उद्धव बालासाहेब ठाकरे के धड़े की झोली में जा रही है. 11 मई को देश के प्रधान न्यायाधीश डी. वाइ. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में पांच जजों की संविधान पीठ ने उनकी सरकार को राहत देते हुए यथास्थिति बहाल करने और ठाकरे को फिर मुख्यमंत्री नियुक्त करने से मना कर दिया क्योंकि ठाकरे ने सदन में बहुमत सिद्ध करने से एक दिन पहले स्वेच्छा से इस्तीफा दे दिया था, इसके बावजूद शिंदे की परेशानियां खत्म नहीं हुईं.
वजह यह कि इस फैसले से उन्हें सत्ता में बने रहने में तो मदद मिली लेकिन ठाकरे खेमे ने इसे अपनी नैतिक जीत बताया. दरअसल, शीर्ष अदालत ने जून 2022 में तब के राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी के उस फैसले में खामियां बताईं जिसमें उन्होंने ठाकरे की अगुआई वाली महाराष्ट्र विकास अघाड़ी (एमवीए) की सरकार के खिलाफ शिंदे और उनके विधायकों की बगावत के बाद ठाकरे को सदन में बहुमत सिद्ध करने का आदेश दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्पीकर की भूमिका पर भी सवाल उठाए. ठाकरे समर्थकों का कहना है कि शीर्ष अदालत की फटकार से उनका यह दावा पुख्ता हुआ है कि राज्य में शिंदे की सहयोगी भाजपा ने एमवीए गठबंधन सरकार को गिराने के लिए सरकारी मशीनरी और केंद्रीय जांच एजेंसियों का दुरुपयोग किया. इससे यह धारणा बनी है कि उनके साथ गलत हुआ, जिससे मतदाताओं में उनके प्रति सहानुभूति में इजाफा होगा. ठाकरे ने शीर्ष अदालत की प्रतिकूल टिप्पणियों का हवाला देते हुए शिंदे और फड़नवीस को इस्तीफा देने की चुनौती दे डाली.
शिंदे की राह नहीं आसान
शिंदे-फड़नवीस सरकार को सुप्रीम कोर्ट से थोड़ी राहत भले मिल गई हो, लेकिन अभी कई और मुश्किलों से उसका सामना होना बाकी है
Diese Geschichte stammt aus der May 31, 2023-Ausgabe von India Today Hindi.
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