मेरे सामने आसमां और भी हैं
India Today Hindi|August 02, 2023
विधायक, सांसद, मंत्री, विधानसभाध्यक्ष, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष. बिहार-झारखंड के नेता इंदर सिंह नामधारी कई अहम पदों पर रहे लेकिन अपनी स्वतंत्र सोच के चलते उन्हें पार्टी छोड़नी पड़ी. धर्म की सियासत को लेकर वाजपेयी, आडवाणी और फिर नरेंद्र मोदी की सोच को आकार लेते हुए उन्होंने करीब से देखा
मेरे सामने आसमां और भी हैं

धर्म एवं राजनीति में कशमकशः तब भारतीय जनसंघ का पलामू में नया-नया आगमन हुआ था. संगठन के प्रमुख चिंतक दीनदयाल उपाध्याय जब डाल्टनगंज आए तो रघुबीर बाबू (एक वकील) मुझे भी अपने साथ साहित्य समाज पुस्तकालय के प्रशाल में ले गए. उन दिनों देश के बेरोजगार युवा आक्रोश में थे और आगजनी की खबरें सुर्खियों में रहा करतीं. उपाध्याय जी ने बड़े ही आकर्षक ढंग से पूछा, “यदि लक्ष्यहीन युवाओं को राष्ट्र निर्माण के काम में लगा दिया जाए तो वे तोड़-फोड़ का रास्ता क्यों अपनाएंगे?" उनका बौद्धिक सुनकर मैं इतना प्रभावित हुआ कि मेरा जनसंघ के प्रति झुकाव और बढ़ गया. इस तरह 1966 ने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी.

अगले साल 1967 में बिहार चुनाव का बिगुल बज गया और संघ के कई प्रमुख सदस्यों ने मेरा नाम भी उछाल दिया. न चाहते हुए भी मैं पटना से आई एक इंटरव्यू कमेटी के सामने पेश हो गया. सभी टिकटार्थियों के साक्षात्कार के बाद समिति ने मेरे नाम की घोषणा कर दी तो मेरा परिवार हैरान हो गया. हर बार की तरह इस बार भी मेरे भाइयों ने मेरे निर्णय का सम्मान रखा. मेरे चौथे भाई महेंद्र ने तो कपड़े की दुकान पर बैठे-बैठे जोर-शोर से मेरा प्रचार करना भी शुरू कर दिया. उन दिनों जनसंघ का मुख्य नारा था “धर्म, धेनु, धन एवं धरती की रक्षा के लिए जनसंघ को वोट दें". किसे पता था कि दीवारों पर लिखे गए यह नारे आज के वक्त की तकदीर लिखेंगे. जनसंघ के इन नारों पर कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी प्रो. बी. पी. वाजपेयी मुझ पर अक्सर यही तंज कसा करते कि "नामधारी अपने धन की रक्षा करने के लिए ही राजनीति में आए हैं."

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