मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 1 अक्तूबर को अपने निर्वाचन क्षेत्र बुधनी के लड़कुई गांव में जुटी महिलाओं की मैं भीड़ से कहा, "ऐसा भैया नहीं मिलेगा. जब मैं चला जाऊंगा, तो बहुत याद आऊंगा." दो दिन बाद, सीहोर के सातदेव गांव में एक कार्यक्रम में चौहान ने वहां जुटे लोगों से पूछा, "हमें चुनाव लड़ना चाहिए या नहीं?"
जिस व्यक्ति ने 16 साल से अधिक समय तक राज्य की बागडोर संभाली हो, ये दोनों बयान असुरक्षा की उस भावना को उजागर कर देते हैं जिनसे अपने राजनैतिक अस्तित्व को लेकर वे अपनी पार्टी के भीतर और बाहर, दोनों जगह जूझ रहे हैं. चौहान ऐसे नेता हैं जिन्हें चुनाव की गर्मी और धूल ने कभी भी विचलित नहीं किया. वास्तव में, वे सबसे अधिक सहज तब होते हैं जब वे प्रशासनिक फैसले करने के बजाए लोगों के बीच हों. उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को 2008 और 2013 में अच्छे अंतर से जीत दिलाई, जबकि 2018 का चुनाव पार्टी मामूली अंतर से हार गई. हालांकि भाजपा को कांग्रेस से अधिक वोट मिले लेकिन सीटों के आंकड़े में वह पिछड़ गई. कांग्रेस को 114 सीटें जबकि भाजपा को 109 सीटें मिली थीं. मार्च, 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस के 22 विधायकों के साथ भाजपा में शामिल हो गए और कमलनाथ की सरकार गिर गई तो चौहान का एक बार फिर राजतिलक हो गया.
हालांकि, ऐसा लगता है कि इस चुनावी मौसम में राजनैतिक हवा का रुख चौहान के लिए बदल गया है. मसलन, भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने इस बार के विधानसभा चुनाव पर जैसा नियंत्रण बना रखा है, वैसा पहले कभी नहीं देखा गया. उम्मीदवारों का चयन हो या चुनाव की रणनीति, फैसले दिल्ली में ही होते हैं. केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव और अश्विनी वैष्णव को चुनाव तैयारियों के लिए लगा दिया गया है. सबसे बढ़कर यह कि पार्टी चौहान को मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश करने से कतरा रही है. सार्वजनिक सभाओं में दिए गए भाषणों में उनके नाम का जिक्र कम होता है और वे भी बस उन नामों में से एक होकर रह गए हैं जिनके नाम पर राज्य में वोट मांगे जा रहे हैं. इसकी क्या वजह है और चौहान हवा का रुख कैसे अपनी तरफ मोड़ेंगे?
सत्ता विरोधी रुझान का प्रेत
Diese Geschichte stammt aus der October 25, 2023-Ausgabe von India Today Hindi.
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