पेरिस ओलंपिक शुरू होने के कुछ दिनों बाद मुझे यह लेख लिखने को कहा गया, और मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि मैंने जो कुछ लिखा, वह मेरे एहसास से इसलिए भी ज्यादा स्पष्ट है क्योंकि यह भारतीय खिलाड़ियों को आत्मविश्वास के साथ पदक जीतते और पोडियम से बाल-बाल चूकते हुए देखने के बाद लिखा गया है. हम टोक्यो में अपने कुल पदकों की संख्या को पार भले नहीं कर पाए, लेकिन बड़ी संख्या में हमारे एथलीट पोडियम पर कदम रखने के काफी करीब पहुंचे, और अगर वे मामूली अंतर पाट लेते तो हमारी पदक संख्या दोगुनी हो जाती. जो हो सकता था, उसे लेकर निराशा है, लेकिन उसके साथ ही जो हो सकता है, उसके बारे में आत्मविश्वास भी तगड़ा है.
नीरज, मनु, स्वप्निल, अमन और पुरुष हॉकी टीम ने शानदार प्रदर्शन किया, लेकिन विनेश, मीराबाई, निशांत और लक्ष्य भी लाजवाब रहे. अविनाश साबले भले ही कुल मिलाकर 11वें स्थान पर रहे लेकिन वे 3,000 मीटर स्टीपलचेज स्पर्धा के फाइनल के लिए क्वालीफाइ करने वाले भारत के पहले पुरुष एथलीट थे. कोई भी भारतीय पुरुष बैडमिंटन खिलाड़ी क्वार्टरफाइनल चरण से आगे नहीं बढ़ पाया था, और लक्ष्य ने वह मिथक तोड़ दिया. हमारे प्रदर्शन भले पदक में तब्दील नहीं हुए, लेकिन उनसे हमें नई उम्मीद बंधती है.
जमीनी स्तर पर नजर गड़ाएं: हम दुनिया के सबसे बड़े खेल तमाशे की भव्यता से अभिभूत हैं और महान खेल राष्ट्रों की कामयाबियों से अचंभित हैं, लेकिन हम अगर अपनी महत्वाकांक्षा के अनुरूप नतीजे हासिल करने की खातिर एक पूरी संस्कृति का निर्माण करना चाहते हैं तो हमें दूसरे दायरे यानी जमीनी स्तर की ओर देखना होगा. हमारी क्रांति स्कूल और कॉलेज के स्तर पर शुरू होनी चाहिए जहां सरकारी और निजी संस्थानों में अत्यधिक प्रतिस्पर्धी खेल व्यवस्था और विकसित की जानी चाहिए.
Diese Geschichte stammt aus der August 28, 2024-Ausgabe von India Today Hindi.
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