खिलौनों के आनंद के बिना बचपन की कल्पना कर पाना मुश्किल है. हरेक खिलौना हर उस बच्चे के विकास की कहानी को पिरोने वाला अनिवार्य धागा है जिसने कभी किसी प्यारे से टेडी बीयर को गले लगाया है, ब्लॉक से चित्र-विचित्र दुनिया बनाई, या पिक्चरबुक के पन्ने में खो गया है. यह बात उनके माता-पिता से बेहतर कौन जानता है? दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में असिस्टेंट प्रोफेसर 38 वर्षीया किरण बाला को लीजिए, तीन बच्चों-आठ बरस की एक बेटी और 18 महीने के जुड़वां बच्चों की मां किरण अपने छोटे-छोटे बच्चों को व्यस्त रखने और उनका स्क्रीन टाइम कम से कम करने के लिए खिलौनों का बहुत ज्यादा सहारा लेती हैं. वे कहती हैं, "शिक्षक होने के नाते, जिसे पढ़ाने और खुद पढ़ने में तालमेल बिठाना पड़ता है, मेरे बच्चों को लंबे वक्त तक व्यस्त रखने के लिए खिलौने बहुत जरूरी हैं." दूसरे माता-पिता की तरह किरण जानती हैं कि खासकर छह महीने से पांच साल के बीच की उम्र के बच्चों में बुनियादी हुनर विकसित करने में मदद के लिए खिलौने बहुत अहम हैं.
भारत में खिलौना बाजार तेजी से बढ़ रहा है. इसकी वजह है बच्चों की बढ़ती संख्या और खर्च योग्य आमदनी, बढ़ता मध्य वर्ग, और बच्चे के विकास में खेल की अहमियत को लेकर जागरूकता. 2022 में इस क्षेत्र के 1.5 अरब डॉलर (12,300 करोड़ रु.) के होने का अनुमान था. यह 12 फीसद से ज्यादा की सीएजीआर से बढ़ रहा है और 2028 में इसके 3 अरब डॉलर (24,600 करोड़ रु.) पर पहुंच जाने का अनुमान है. मगर विशेषज्ञों का कहना है कि इसका संगठित बाजार महज 10 फीसद है, खासकर यह देखते हुए कि इस पर असंगठित छोटे कारोबारियों का दबदबा है, और अवसर कहीं ज्यादा बड़ा है.
नीतियों के जरिए बढ़ावा
Diese Geschichte stammt aus der September 18, 2024-Ausgabe von India Today Hindi.
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सीवान शहर के पास जुड़कन गांव के कृष्ण कुमार अपने गांव में खुदी पतली-सी नहर की पुलिया पर बैठे मिले. ऐन नहर के किनारे उनका पंपसेट लगा था, जिससे वे अपने खेत की सिंचाई कर रहे थे. वे नहर के बारे में पूछते ही उखड़ गए और कहने लगे, \"50 साल पहले नहर की खुदाई हुई थी. हमारे बाप-दादा ने भी इसके लिए अपनी जमीन दी. हमारा दस कट्ठा जमीन इसमें गया. जमीन का पैसा मिल गया था. मगर इस नहर में एक बूंद पानी नहीं आया. सब जीरो हो गया, जीरो पानी आता तो क्या हमको पंपसेट में डीजल फूंकना पड़ता.\"