जन्म से ही पैर टेढ़े थे. गांव में इस ऐब को ग्रहण लगना कहते हैं और ऐसे को 'ग्रहण लगुआ' कहा जाता है. बचपन में साथ खेलने वाले बच्चे और बड़े होने पर साथ पढ़ने वाले सहपाठी उन्हें लंगड़ालंगड़ा कह कर चिढ़ाया करते थे. मांबाप ने बड़े प्रेम से नाम रखा चंदन त्रिवेदी.
पिता बलदेव त्रिवेदी 3 भाई थे. चचेरे भाईबहन तो कई थे पर बलदेवजी के 2 ही पुत्र हुए- चंदन और बसंत. चंदन लंगड़ा तो था पर पढ़ने में अच्छा निकला, साथ ही, शैतानी में भी तेज था. धूर्तता, चापलूसी, डींगें हांकने इत्यादि गुणों में भी अव्वल निकला. सभी हंसते कि लंगड़ा है तब ऐसा है, कुदरत ने दोनों पैर ठीक रखे होते तो दुनिया को ही बेच देता. स्नातक की परीक्षा पास करने के बाद उस ने कंपीटिशन दिए, केंद्रीय सरकार का कर्मचारी बन गया और शहर में ही नौकरी लग गई. बसंत के लिए पढ़ाई मानो पहाड़ थी.
हां, उस में तोता रटंत की क्षमता कुछ ज्यादा ही थी और वह पिता के साथसाथ पुरोहिताई में लग गया. समय पर बलदेव पंडित ने अपने दोनों पुत्रों का विवाह किया. पोतेपोतियों का मुख देख उन्हें गोद में खिला कर चल बसे. उन की पत्नी भी कुछ वर्षों बाद दुनिया छोड़ गईं.
बचपन में हुआ नामकरण नौकरी में आगे चल कर साथियों द्वारा लांगो पंडित में बदल गया. इस के पीछे की कहानी यह है कि चंदन बाबू के कार्यालय में एक दिन उन के गांव का एक मित्र कुछ कार्यवश जा पहुंचा. लांगो पंडित ने कार्यालय में अपनी विद्वत्ता और परिवार के बड़प्पन की हवा फैला रखी थी और सबों से कह रखा था कि सभी उन्हें आचार्यजी के नाम से जानते हैं. बेचारे साथी ने चंदन बाबू का पुराना पुकारू नाम ले कर उन से मिलना चाहा तो कोई उसे कुछ नहीं बता पाया. उस सरल हृदय ने सरलता से बखान किया कि वह अपने मित्र 'लांगो पंडित' से मिलना चाहता है जिस का जन्म से ही पैर खराब है, वह इस तरह से चलता है. ऐसा कहते हुए उस ने लांगो पंडित के चलने के ढंग की नकल कर के लोगों को दिखाई. लोग हंस पड़े और उन्हें यह समझते देर न लगी कि यह उन के साथी तथा कथित आचार्यजी हैं.
मित्र से मिला आचार्यजी का यह नया नाम जल्दी ही कार्यालय से हो कर पूरे विभाग में सबों की जबान पर जा चढ़ा. सामने तो नहीं पर पीठपीछे उन्हें अब सभी लांगो पंडित के ही नाम से संबोधित करने लगे.
Diese Geschichte stammt aus der November First 2023-Ausgabe von Sarita.
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