सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि समाज से संवाद करने का सीधा माध्यम भी है. सिनेमा समाज पर प्रभाव भी डालता है. यही वजह है कि पूरे विश्व के हर देश की सरकार बदलने के साथ ही वहां का सिनेमा बदलता रहा है. इस से भारतीय फिल्म उद्योग भी अछूता नहीं रहा. आजादी के बाद नेहरू की नीतियों की तर्ज पर सिनेमा बनता रहा. फिर कम्युनिस्ट पार्टी के विचारों व सोच के मुताबिक 'इप्टा' हावी हुआ और इप्टा से जुड़े लोगों ने वैसा ही सिनेमा बनाया.
श्याम बेनेगल व गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकारों को पश्चिम बंगाल के उद्योगपति वहां की सरकार के दबाव में सिनेमा बनाने के लिए उन्हें धन मुहैया कराते रहे. मगर इन फिल्मकारों ने एजेंडा वाला सिनेमा बनाते हुए भी सिनेमा की तरह ही बनाया.
आज भी वामपंथी विचारधारा वाला सिनेमा मलयालम भाषा में धड़ल्ले से बन रहा है पर इस सिनेमा पर भी 'एजेंडे वाला' या 'प्रोपगंडा वाला' सिनेमा का आरोप नहीं लगा सकते. मगर 2014 के बाद हिंदी में 'एजेंडे वाला' सिनेमा और प्रोपगंडा वाला सिनेमा इस हिसाब का बन रहा है कि इन्हें खुलेआम सरकारपरस्त एजेंडा वाला सिनेमा कहा जा रहा है.
सिनेमा बना एजेंडे का माध्यम
2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने आरएसएस की सहयोगी संस्था संस्कार भारती से जुड़े तमाम लोगों के साथ बैठक की. उन के साथ इस बात पर विचारविमर्श किया कि सिनेमा के माध्यम से किस तरह अपनी नीतियों का प्रचार किया जा सकता है और किस तरह बौलीवुड पर कब्जा जमा सकते हैं. पिछले 9 वर्षों से जिस तरह का सिनेमा बन रहा है, उस पर गौर करें तो हमें नजर आता है कि इसी बैठक का नतीजा है. भाजपा व्यवस्थित तरीके से सिनेमा में अपनी घुसपैठ बनाती जा रही है.
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