यों तो 1930 के दशक से ही शिर्डी वाले साईं बाबा के चमत्कारों से ताल्लुक रखते किस्सेकहानी आम होने लगे थे लेकिन लोगों में इन का बुखार 60 के दशक से ज्यादा चढ़ना शुरू हुआ था. उस दौर में प्रिंटिंग प्रेसों में छपे परचे खूब बांटे जाते थे जिन का मजमून यह होता था कि शिर्डी वाले सांईं बाबा की कृपा से फलां किसान को खेत में गड़ा खजाना मिला या ढिकाने के बेटे की सरकारी नौकरी लग गई, बेऔलाद दंपती के यहां शादी के चौदह वर्षों बाद चांद सा बेटा पैदा हुआ, अमुक की बेटी की शादी हो गई या फलाने का कोढ़ ठीक हो गया.
इन परचों का अपना अलग क्रेज था जिन में यह भी खासतौर से लिखा होता था कि जो भी ऐसे हजार परचे छपवा कर बंटवाएगा उस की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होंगी और जो पढ़ कर भी परचे में लिखी बातों को अनदेखा करेगा या उन पर अविश्वास करेगा उस पर दुखों व मुसीबतों का पहाड़ टूटेगा. रामपुर के एक व्यापारी ने इस परचे का मजाक उड़ाया था तो उसे लकवा मार गया और फलांने ने परचे नहीं बंटवाए तो उस का जवान बेटा मर गया वगैरह वगैरह.
आज की तरह लोग तब भी दहशत और आस्था में फर्क नहीं करते थे, सो, उन्होंने ऐसे परचे छपवा कर बंटवाए. इस से किस को क्या हासिल हुआ, यह तो भगवान कहीं हो तो जाने लेकिन प्रिंटिंग प्रैस वालों को जरूर बिना कोई गड्ढा खोदे खूब पैसा मिला जो थोक में ऐसे परचे छाप कर रखते थे और परचे के नीचे अपनी प्रैस का नाम व पता जरूर छापते थे जिस से ग्राहक को उन तक पहुंचने में भटकना न पड़े.
70 का दशक आते आते लोग इफरात से शिर्डी जाने लगे. वहां के मंदिर की महिमा और चमत्कारों के चर्चे गांवगांव, शहरशहर होने लगे. लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि लोगों का भरोसा शंकर, राम, हनुमान, दुर्गा या कृष्ण पर से उठने लगा था या प्रयागराज, हरिद्वार, बद्रीधाम, केदारनाथ सहित किसी दूसरे तीर्थस्थल से उस की आस्था डगमगाने लगी थी बल्कि उन की मंशा यह थी कि इन्हें तो खूब आजमा लिया, अब एक बार सांईं बाबा को भी आजमा लेते हैं, हर्ज क्या है.
सांईं के नाम पर काटी चांदी
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