आपकी पुस्तक में उल्लेख है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2021-22 के बजट में राजकोषीय विस्तार की नीतियां अपनाई। आपने कहा कि ऐसी नीतियां विकसित देशों में मंदी के दौरान कारगर हो सकती हैं लेकिन भारत जैसे उभरते बाजार में नहीं। आप ऐसा क्यों सोचते हैं?
मैंने यह बात यूरो क्षेत्र के सॉवरिन ऋण संकट के संदर्भ में कही थी जो वैश्विक वित्तीय संकट के तुरंत बाद आया था। शुरुआत में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने राजकोषीय मितव्ययिता अपनाई। तमाम अन्य जगहों की तरह उन्होंने पूर्वी एशिया पर जो थोपा, वही बात यूरोप में कही और फिर पाया कि अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव, सकारात्मक से अधिक है।
उन्होंने पाया कि राजकोषीय गुणक अनुमान से अधिक थे। आईएमएफ ने कम से कम उस समय माना कि उससे गलती हुई है। इसलिए शायद मितव्ययिता की सलाह उचित नहीं। नोबेल विजेता जोसेफ स्टिगलिट्ज भी लंबे समय से ऐसा कह रहे हैं। हमारे तत्कालीन वित्त मंत्री ने पाया कि राजकोषीय संकुचन सही नहीं होगा। जहां तक मौजूदा वित्त मंत्री की बात है तो उन्होंने शिथिल राजकोषीय समेकन अपनाया और 2025-26 तक 4.5 फीसदी के राजकोषीय घाटे की लंबी अवधि तय की। यह अनुमान से अधिक शिथिलता थी लेकिन वह कामयाब रहीं और इसका श्रेय उन्हें जाता है।
क्या कर्ज का ऊंचा स्तर आपको चिंतित करता है?
यकीनन। मुझे लगता है कि केंद्र और राज्य सरकारों के कर्ज को मिलाकर देखें तो अभी उसका स्तर ऊंचा है। कोविड के दौरान वह 90 फीसदी तक पहुंचा था और अब कुछ कम है। परंतु राजकोषीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) समिति का कहना है कि भारत में कर-जीडीपी अनुपात 60 फीसदी तक होना चाहिए। केंद्र के लिए 40 फीसदी और राज्यों के लिए 20 फीसदी। हम इससे बहुत दूर हैं। कुछ लोग कहेंगे कि हमें 60 फीसदी पर अड़ना नहीं चाहिए। मैं उनसे सहमत हूं।
आपने कहा कि भारत जैसे उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों को रेटिंग एजेंसियों की ग्रेड्स को लेकर उदासीन नहीं होना चाहिए। बहरहाल, वित्त मंत्री ने हाल ही में एक रिपोर्ट का हवाला दिया कि उभरते बाजारों की रेटिंग का इन एजेंसियों का तरीका खामी भरा है।
Diese Geschichte stammt aus der May 10, 2024-Ausgabe von Business Standard - Hindi.
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