![चेक के अनादर मामले में अंतरिम मुआवजा अनिवार्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट](https://cdn.magzter.com/1556262905/1710910474/articles/Tu1z2C5tq1710930591178/1710930822319.jpg)
हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट के निर्णय में दिए गए निष्कर्षों को खारिज करते हुए कहा कि न्यायालय द्वारा परिवादी को अंतरिम मुआवजा देने की शक्ति का प्रयोग एक सीमा तक किया जाना चाहिए। इसके अलावा, यदि धारा 143ए (1) एनआई एक्ट में 'हो सकता है' शब्द की व्याख्या 'करेगा' के रूप में की जाती है, तो इसके गंभीर परिणाम होंगे, जिससे एक ऐसी स्थिति पैदा होगी, जिसके तहत धारा 138 के तहत प्रत्येक परिवाद में, आरोपी को चेक राशि का 20 प्रतिशत तक अंतरिम मुआवजा देना होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कहां की- धारा 143ए के तहत शक्ति का प्रयोग करने के कठोर परिणामों को ध्यान में रखते हुए और वह भी ट्रायल में अपराध का पता चलने से पहले, प्रावधान में इस्तेमाल किए गए शब्द हो सकता है को करेगा के रूप में नहीं समझा जा सकता है। प्रावधान को एक निर्देशिका के रूप में रखना होगा न कि अनिवार्य। इसलिए, हमें इसमें कोई संदेह नहीं है कि धारा 143 में प्रयुक्त शब्द हो सकता है का अर्थ करेगा के रूप में नहीं लगाया जा सकता है। इसलिए, धारा 143ए की उपधारा (1) के तहत शक्ति विवेकाधीन है।
एनआई एक्ट की धारा 143ए न्यायालय को परिवादी को अंतरिम मुआवजा देने का निर्देश देने की शक्ति प्रदान करती है। चेक अनादर के मामलों के अंतिम समाधान में अनुचित विलंब होने के कारण के यह प्रावधान एक संशोधन के माध्यम से शामिल किया गया था। उद्देश्यों और कारणों के विवरण में, यह कहा गया था कि चेक के बेईमान भुगतानकर्ता अपील दायर करके और स्थगन प्राप्त करके धारा 138 के तहत परिवाद की कार्यवाही को लम्बा करते हैं। इसलिए, अस्वीकृत चेक के भुगतान प्राप्त करने वाले के साथ अन्याय होता है, जिसे चेक के मूल्य को प्राप्त करने के लिए अदालती कार्यवाही में काफी समय और संसाधन खर्च करना पड़ता है।
धारा 143ए के तहत विवेक का प्रयोग करने के लिए व्यापक मानदंड निर्धारित किए
i. अदालत को प्रथम दृष्टया परिवादी द्वारा प्रस्तुत किए गए गए मामले के गुण और आवेदन के जवाब में आरोपी द्वारा पेश किए गए बचाव का मूल्यांकन करना होगा। अभियुक्त की आर्थिक तंगी भी एक विचारणीय विषय हो सकता है।
ii. अंतरिम मुआवजा देने का निर्देश तभी जारी किया जा सकता है, जब प्रथम दृष्टया परिवादी का मामला बनाता है।
Diese Geschichte stammt aus der 20 March 2024-Ausgabe von Rising Indore.
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यदि कोई व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ है और वह कोई अपराध करता है यदि न्यायालय को यह विश्वास हो जाता है कि व्यक्ति आरोपी मानसिक रूप से विक्षिप्त है तो न्यायालय ऐसे व्यक्ति को सजा नहीं दे सकता है क्योंकि विधि शास्त्र का यह सर्वमान्य सिद्धांत थे कि आपराधिक मामलों की सुनवाई करते समय व्यक्ति को अपने बचाव का पूर्ण अधिकार है ऐसे प्रकरणों में चिकित्सक का अभीमत महत्वपूर्ण होता है यदि ऐसा आप भी व्यक्ति स्वस्थ हो सकता है तो ऐसी दसा में न्यायालय प्रकरण के विचरण को स्थगित कर देता है आरोपीय व्यक्ति के स्वस्थ होने पर एवं बचाव करने में समर्थ होने पर प्रकरण की सुनवाई करता है।
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