वैदिक साहित्य और सरस्वती-सिंधु सभ्यता में सूर्य
Panchjanya|January 15, 2023
सभ्यता के प्रारंभ से ही सूर्य की पूजा की जाती रही है। भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं, प्राचीन विश्व का प्रायः समस्त समाज किसी न किसी रूप में सूर्य की पूजा करता आया है। सूर्य में विशेष रूप से आंखों, त्वचा, दांतों, नाखूनों के पीलेपन को ठीक करने और हृदय रोग के साथ-साथ रक्ताल्पता से राहत देने की अद्भुत शक्ति है
आचार्य मनमोहन शर्मा
वैदिक साहित्य और सरस्वती-सिंधु सभ्यता में सूर्य

पिछले लगभग 100 साल से हमें सिंधु और वैदिक सभ्यता के बीच अंतर सिखाया- पढ़ाया जाता रहा है, लेकिन अब इस विषय पर पुनर्विचार करने का समय आ गया है। नए पुरातात्विक शोधों और वैदिक साहित्य के गहन अध्ययन के प्रकाश में हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि हमें इन सभ्यताओं के बीच समानताओं पर अधिक ध्यान देना चाहिए। सूर्य पूजा समेत ऐसी बहुत-सी बातें हैं, जो वैदिक साहित्य व पुरातत्व में विशेषकर सिंधु-सरस्वती सभ्यता क्षेत्र में, एक जैसी हैं।

सभ्यता के आरंभिक काल से ही दुनियाभर में सूर्य की पूजा हो रही है। प्राचीन विश्व के लगभग सभी समाज सूर्य को किसी न किसी रूप में पूजते थे और भारतीय उपमहाद्वीप, विशेषकर सिंधु-सरस्वती सभ्यता का क्षेत्र, इसका अपवाद नहीं है। यहां प्राचीन काल से ही विभिन्न नामों और चिह्नों के साथ विभिन्न उद्देश्यों के लिए सूर्य की पूजा की जाती रही है। वैदिक साहित्य में सूर्य के प्रति श्रद्धा के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। बाद के साहित्य में उन्हें आदित्य, भानु, सवित्र, पूषन, रवि, मार्तण्ड, मित्र, भास्कर, प्रभाकर और विवस्वान जैसे कई नामों से जाना जाता रहा है।

Diese Geschichte stammt aus der January 15, 2023-Ausgabe von Panchjanya.

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