भारत की स्वाधीनता का अमृत महोत्सव चल रहा है, इसी के साथ पाञ्चजन्य के शंखनाद का भी अमृत महोत्सव चल रहा है। जब हम किसी भी कालखंड का उत्सव मनाते हैं तो यह उत्सव के साथ-साथ उसका पुनरावलोकन, आत्मावलोकन करने का भी अवसर होता है। गत लगभग एक वर्ष से इस देश में स्वाधीनता के बाद के 75 वर्ष में भारत ने क्या खोया, क्या पाया, इसको लेकर बहुत सारी चर्चाएं हो रही हैं। इस सब में एक विषय बार-बार सामने आ रहा है, कि आजादी के 75 वर्ष पूर्ण होने के बाद भी, राजनीतिक पराधीनता को त्यागने के बाद भी, अपना स्वयं का संविधान स्वयं को प्रदान करने के बाद भी, वैधानिक रूप से क्रिया करने के लिए स्व के अधीन होने के बाद भी आज जब हम अपने चारों तरफ देखते हैं तो अपनी व्यवस्थाओं, तंत्र, प्रक्रिया में, चाहे वे राजनीतिक तंत्र हो, अर्थतंत्र या न्यायतंत्र हो, इन सारे तंत्रों में क्या हमें भारतीयता दिखाई देती है ? क्या हम भारत को देख पाते हैं ?
अर्थव्यवस्था की बात करें तो ऐसी कौन-सी अर्थव्यवस्था थी जिसके आधार पर, जिस उत्पादन की व्यवस्था के आधार पर भारत 15वीं शताब्दी तक विश्व का केवल नंबर एक नहीं, विश्व की समस्त अर्थव्यवस्था का दो तिहाई का हिस्सेदार था ? और 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में जब अंग्रेज यहां आए और उन्होंने 1835 में अपनी शिक्षा व्यवस्था भारत को दी, उससे पूर्व विश्व के सकल घरेलू उत्पादन में 23 प्रतिशत हिस्सेदारी भारत की थी।
क्या स्वतंत्र हो जाने के बाद इस पर विचार नहीं करना चाहिए था कि ऐसा क्या तंत्र था, जिसके कारण विल डूरान्ट जैसे इतिहासकार को लिखना पड़ा कि 'भारत सारे विश्व को संपदा का वितरण करने वाला देश रहा है'। किंतु यदि इसके समानांतर शिक्षा का इतिहास देखें तो हम पाते हैं कि बख्तियार खिलजी के नालंदा को जलाने के बाद इस देश के बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों को समेटने की प्रक्रिया तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में ही हुई। उससे पहले भारत विश्व के दो तिहाई सकल घरेलू उत्पाद की हिस्सेदारी करता था। उसके बाद यह घटकर 23 प्रतिशत पर आ गया, क्योंकि शिक्षा को विकेन्द्रित कर दिया गया।
Diese Geschichte stammt aus der 29 January 2023-Ausgabe von Panchjanya.
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रुद्रपुर स्थित दूधिया बाबा कन्या छात्रावास में छात्राओं को निःशुल्क शिक्षा के साथ-साथ संस्कार और स्वावलंबन का पाठ पढ़ाया जा रहा। इस अनूठे छात्रावास के कार्यों से अनेक लोग प्रेरणा प्राप्त कर रहे
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आनंद का उत्कर्ष फाल्गुन
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