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नि + अस् + घञ् के संयोग से बना 'न्यास' शब्द शास्त्रीय दृष्टि से मन्त्रों द्वारा दैवीय शक्ति को शरीर के विभिन्न अवयवों में ध्यान द्वारा स्थापित करने की प्रक्रिया है। शास्त्रीय देवार्चन विधि में निर्देशन किया गया है : 'देवो भूत्वा देवं यजेत्।' इसे ही भाषान्तरण में कह सकते हैं कि देवता के समान बनकर ही देवपूजन करना चाहिए। दैवीय शक्ति से संयुक्त व्यक्ति ही देवार्चन के लिए अधिकृत होता है। इसलिए देवार्चन हेतु योग्यता प्राप्त करने के लिए भूत शुद्धि करनी चाहिए :
ना देवो देवमर्चयेत् देवार्चन योग्यताप्राप्त्यै भूतशुद्धिं समाचरेत्।
इसे अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि भूतशुद्धि के बिना किया गया धार्मिक अनुष्ठान सफल नहीं होता है :
भूतशुद्धिं बिना कर्म क्रियते यत् जपादिकम्।
तत्सर्वं निष्फलतां याति।।
भूतशुद्धि में न्यास मुख्य है। देवार्चन में तो न्यास आवश्यक प्रक्रिया है। बिना न्यास किए जप-पूजन सफल नहीं होता है।
न्यासं विना जपं प्राहुरासुरं विफलं बुधाः॥
शारदातिलक में तो यहाँ तक कहा गया है कि न्यास के द्वारा दैवीय शक्ति को शरीर के विविध अवयवों पर संस्थापित करके 'देवो भूत्वा देवं यजेत्' चाहिए।
न्यासात्तदात्मको भूत्वा, देवो भूत्वा तु तं यजेत्।
बिना न्यास किए हुए देवकार्य का आधा फल राक्षस ले लेते हैं। 'न्यासहीनं तु यत्कर्मं गृहणन्त्य तु राक्षसाः।'
न्यास किए बिना जो अनुष्ठानादि कार्यों में विशिष्ट पूजावसरों पर पूजा करते हैं, उन्हें भक्ति रहित होकर पूजा करने के समान विपरीत फल मिलता है। उनकी अभीष्ट कामना की पूर्ति नहीं होती है।
भूतशुद्धिलिपिन्यासौ विना यस्तु प्रपूजयेत्।
विपरीतं फलं दद्यादभक्त्या पूजनं यथा।
ध्यान, जप, साधना, देवपूजन, हवन, मन्त्रसिद्धि के लिए किए जाने वाला अनुष्ठान अंगन्यास के बिना सफलता प्रदान नहीं करते हैं।
ध्यानजपार्चनहोमा: सिद्धमन्त्रकृता अपि।
अंगन्यासविधुरा न दास्यन्ति फलान्यमी।।
Diese Geschichte stammt aus der October 2022-Ausgabe von Jyotish Sagar.
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