
भारतीय संस्कृति में तुलसी एक पवित्र और पुण्यदायक पौधे के रूप में प्रसिद्ध है। प्राचीन वाङ्मय में तुलसी धार्मिक दृष्टि से ही नहीं वरन् प्रकृति की सर्वोत्तम औषधियों में से एक एक है। पद्मपुराण में उल्लेख है कि:
तुलसी की सुगन्ध जहाँ-जहाँ जाती है, वहाँ की वायु तत्काल शुद्ध हो जाती है। अगस्त्य संहिता में लिखा है कि तुलसी के पौधे से चारों दिशाओं में दो-दो मील तक की वायु शुद्ध होती है। पुराणों में यह भी लिखा है कि:
तुलसी काननं चैवगृहे यस्यावतिष्ठते।
तद्गृहं तीर्थभूतं दाह नायान्तियम किंकराः॥
अर्थात् जिस घर के द्वार पर तुलसी का बगीचा रहता है, वह घर तीर्थ के समान पवित्र हो जाता है। इससे वहाँ पर यमदूत अथवा तरह-तरह की प्राणनाशक व्याधियाँ नहीं आ सकती हैं। पुराणों के अतिरिक्त बौद्धग्रन्थों में भी तुलसी की महिमा का वर्णन है। तुलसी का पौधा हिमालय पर्वत से अन्य प्रदेशों में गया।
विष्णुपुराण, ब्रह्मपुराण, स्कन्द पुराण एवं देवी भागवत के अनुसार तुलसी की उत्पत्ति की अनेक कथाएँ हैं, परन्तु एक कथा के अनुसार समुद्र मन्थन करते समय जब अमृत निकला, तो कलश को देखकर श्रम की सार्थकता के वशीभूत होकर देवताओं के नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी और उन बूँदों से तुलसी के वृक्ष की उत्पत्ति हई।
[एक अन्य कथा]
पद्मपुराण में लिखा है कि तुलसी की पत्तियाँ, फूल, फल, जड़, शाखाएँ, तना आदि सभी कुछ पवित्र होता है। तुलसी के पौधे के नीचे की भूमि भी पवित्र मानी जाती है। विष्णुपुराण की एक कथा के अनुसार एक बार भगवान् श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा ने उन्हें तौलने का निश्चय किया। उन्होंने श्रीकृष्ण को तराजू के एक पलड़े पर बिठाया और दूसरे पर अपने मूल्यवान् आभूषण और अन्य सम्पत्तियाँ रखने लगीं पर काँटा अपनी जगह से हिला भी नहीं।
आखिर श्रीकृष्ण की पटरानी रुक्मिणी ने गहनों वाले पलड़े में एक तुलसी की पत्ती रख दी। तब दोनों पलड़े बराबर हो गए।
Diese Geschichte stammt aus der October-2023-Ausgabe von Jyotish Sagar.
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