मैं कल रात को अपनी सहेली मुसकान के घर के ड्राइंगरूम में बैठी उस से गपशप कर रही थी कि अचानक वहां की बत्ती गुल हो गई. सभी अन्य रूम्स की लाइट थी.
"ओह, लगता है, यहां का बल्ब फ्यूज हो गया. रौनित भी घर पर नहीं हैं. अब बल्ब कौन बदलेगा?" वह झुंझलाते हुए बोली.
"अरे, इतना क्यों झुंझला रही हो? बल्ब ही तो फ्यूज हुआ है. बदल दे. कोई आसमान तो नहीं टूट पड़ा."
"मुझे बल्ब बदलना नहीं आता. यह काम मर्दों का है. हम औरतों का नहीं."
"एक्सक्यूजमी, यह तूने क्या बोला? वैसे तो घर के बाहर बड़ी स्त्रीपुरुषों की समानता के झंडे हर समय गाड़ती रहती है और घर के कामों में यह भेदभाव? तू क्यों नहीं बदल सकती फ्यूज्ड बल्ब? यह कोई रौकेटसाइंस तो नहीं."
"अरे बाबा, मैं ने आज तक कभी घर में फ्यूज्ड बल्ब नहीं बदला. हमेशा रौनित ही बदलते हैं."
"और अगर कभी रौनित के पीछे बल्ब फ्यूज हो जाए तो क्या करेगी? तेरी बड़ी बेटी की बिटिया तेरे पास ही रहती है न? अभी बहुत छोटी है. रौनित कभीकभी औफिस के टूर पर भी जाते हैं न. जरा सोच, कभी उन की गैरमौजूदगी में देर रात तेरे रूम का बल्ब फ्यूज हो जाए और वह अचानक जोर से रोने लगे, तो क्या करेगी? रौनित का वेट करेगी, कब वे दौरे से वापस आएं और बल्ब बदलें?" मैं ने कुछ सोच कर तनिक मुसकराते हुए उस से पूछा.
"मैं...मैं..." मेरे इस सवाल पर वह बगलें झांकने लगी.
हर काम बराबर
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