हमारे देश में हर साल कई तरह के त्योहार मनाए जाते हैं. ये त्योहार लोगों को उन की रोजमर्रा की दिनचर्या से सिर्फ कुछ समय का ब्रेक ही नहीं देते हैं बल्कि जश्न मनाने और अपनों के साथ रिश्ते मजबूत करने का मौका भी देते हैं. इन त्योहारों का मतलब उपवास करना या धार्मिक रीतिरिवाजों को निभाना नहीं बल्कि जिंदगी में प्यार और उत्साह भरना है. इन्हें धर्म से नहीं बल्कि खुशियों से जोड़ कर देखना चाहिए. प्राचीनकाल से हर त्योहार कुछ खास मतलब से मनाया जाता रहा है.
कभी कृषि कार्य आरंभ करने की खुशी, कभी फसल काटने का हर्ष तो कभी मौसम के बदलाव का संकेत. ये बहुआयामी उत्सव हैं. आज हम ने भले ही इन्हें रीतिरिवाजों और धार्मिक कर्मकांडों में इतना ज्यादा डुबो रखा है कि इन के असली अर्थ और आनंद को भूल गए हैं.
फैस्टिवल का मतलब तो हंसीखुशी और ऐंजौय करने का दिन है न कि पूजापाठ करने का दिन. याद रखिए यह पंडितों और धर्मगुरुओं की तिजोरी भरने का दिन नहीं है बल्कि अपने लिए खुशियां ढूंढ कर लाने का दिन है. त्योहार की खासीयत है कि यह एकसाथ सब का होता है. आप बर्थडे मनाते हैं, ऐनिवर्सरी मनाते हैं, ये सब दिन आप के पर्सनल होते हैं, आप की फैमिली के लिए खास होते हैं. मगर फैस्टिवल्स पूरे देश में एकसाथ मनाए जाते हैं. हरकोई उसी दिन फैस्टिवल मना रहा होता है. इस का आनंद ही अलग होता है.
धर्म का दखल क्यों
मगर धर्म ने हमारी खुशियों, हमारे फैस्टिवल्स पर कब्जा कर रखा है. अगर इंसान पैदा होता है तो धर्म और धर्मगुरु आ जाते हैं. धर्मगुरु इस बहाने पैसा कमाते हैं. इंसान मरता है तो भी धर्मगुरुओं की चांदी हो जाती है. जबकि कोई इंसान पैदा या मर रहा है या शादी कर रहा है उसमें धर्म का या धर्मगुरुओं का दखल क्यों? इसी तरह कोई भी फैस्टिवल हो धर्मगुरु, पंडित, पुजारी सब अपनी चांदी करने की कोशिश में लग जाते हैं.
लोग आंख बंद कर उन के हिसाब से चलते हैं. उन के हिसाब से पूजापाठ में पूरा दिन बिताते हैं और फिर दानधर्म के नाम पर अपनी मेहनत से कमाई हुई दौलत उन पर लुटा देते हैं. यह फैस्टिवल नहीं हुआ यह तो एक तरह से बस पंडितों की चांदी हुई.
मानसिक सेहत के लिए लाभकारी हैं ये फैस्टिवल्स
Diese Geschichte stammt aus der October First 2024-Ausgabe von Grihshobha - Hindi.
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