साल 2019 लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान के लिए काफी अहम रहा । 22 जुलाई , 2014 को लोहिया अस्पताल और लोहिया संस्थान का विलय कर संयुक्त शिक्षा संस्थान बनाने के फैसले पर मुहर लगने के बाद इस पर अमल 2019 में ही हुआ । इसी साल निदेशक ने 20 सितंबर तक सभी प्रक्रियाएं पूरी कर संस्थान के अधीन सेवाएं रन करने का दावा किया ।
Esta historia es de la edición January 1, 2020 de News Times Post Hindi.
Comience su prueba gratuita de Magzter GOLD de 7 días para acceder a miles de historias premium seleccionadas y a más de 9,000 revistas y periódicos.
Ya eres suscriptor ? Conectar
Esta historia es de la edición January 1, 2020 de News Times Post Hindi.
Comience su prueba gratuita de Magzter GOLD de 7 días para acceder a miles de historias premium seleccionadas y a más de 9,000 revistas y periódicos.
Ya eres suscriptor? Conectar
समाज को मूल्य आधारित सूचना जल्द पहुंचाएं
हमारा समाज रूढ़िवादी नहीं, परिवर्तन को स्वीकार करने वाला है। गतिशीलता हमारे संगठन की पहचान है इसलिए मौजूदा परिवेश में हमें काफी सक्रिय और सजग रहना होगा। साथ में संगठन और उसके संघर्ष के स्वरूप को समझ कर आगे बढ़ना होगा। भारत के जीवन प्रवाह को लेकर विरोधी विचार वालों के प्रचारतंत्र का मुकाबला करने के लिए प्रचार के नए साधनों जैसे, सोशल मीडिया, शार्ट फिल्म एवं फीचर फिल्म का इस्तेमाल करना चाहिए। इन साधनों के साथ जनजागरण के कार्यक्रमों को प्रमुखता देनी चाहिए। गतिशीलता ही हमारे संगठन की धरोहर और पहचान है। इस विश्वास को कायम रखने के लिए हमारा सदैव सक्रिय रहना आवश्यक है। साथ में अपने वैचारिक संगठन और उसके संघर्ष के स्वरूप को समझ कर अपनी रणनीति तय करनी चाहिए।
संस्कृति व सर्जनात्मकता की जरुरत
पिछले दिनों देश में कई स्थानों पर आगजनी, तोड़फोड़ और सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाते हुए देश और संविधान से प्रेम की भावना को प्रमाणित करने के नारे दिए जा रहे थे। ये हिंसा की ही विभिन्न अभिव्यक्तियां थीं। अपने पक्ष को सही साबित करने के लिए हिंसा की युक्ति का लक्ष्य सरकारी पक्ष को त्रस्त और भयभीत करना है। इस सोच में सरकार को सरकारी सम्पत्ति के बराबर मान लिया जाता है और उसे नष्ट करना अपना कर्तव्य । यह सब निश्चय ही सियासत के एक आत्मघाती मोड़ का ही संकेत है, जिसके दूरगामी परिणाम होंगे।
शिक्षकों की नजरें भी केंद्रीय बजट पर
निजी संस्थान के परिणामों और लोकप्रियता से मेल खाने के लिए सरकारी शिक्षण संस्थानों को प्राथमिक, माध्यमिक, कॉलेज, विश्वविद्यालय और तकनीकी शिक्षा के लिए अच्छे बजट आवंटन की आवश्यकता है। मई 2019 में जारी सरकार की नई शिक्षा नीति के मसौदे में वर्ष 2030 तक कुल सरकारी खर्च के 10 से 20 फीसदी तक शिक्षा पर खर्च बढ़ाने का सुझाव है, लेकिन दुर्भाग्य से शिक्षा को आवंटित केंद्रीय बजट का हिस्सा 2014-15 में 4.14 प्रतिशत से गिरकर 2019 में 3.4 प्रतिशत हो गया। वर्तमान में शिक्षा खर्च की बड़ी धनराशि (80 फीसदी तक) राज्यों से आती है, लेकिन कई राज्यों में शिक्षा पर खर्च किए गए अनुपात को, विशेष रूप से 2015 के 14वें वित्त आयोग की अवधि के बाद, कम किया गया है। हालांकि 2019-20 में आवंटित धनराशि बढ़ी है। कई राज्य पहले से ही शिक्षा पर 15 और 20 फीसदी के बीच खर्च करते हैं। गरीब राज्यों में महत्वपूर्ण परिणामों के लिए निवेश की अधिक आवश्यकता है।
शरणार्थियों की उम्मीदों का इम्तिहान
नागरिकता कानून में संशोधन के बाद देश नागरिकता की अहमियत समझने में लगा है। आजादी के बाद मजहब के नाम पर पहले दो धड़ों में, फिर अलग-अलग मुल्कों में बंटे भारत में 'आजादी' के अपने-अपने मायने हैं। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में अपने धर्म के मुताबिक जीने-रहने और पहनने-खाने की आजादी न मिलने और अमानवीय उत्पीड़न के चलते लाखों नागरिक बारी-बारी से जमीन-जायदाद, सगे-संबंधियों को छोड़कर भारत आए और यहीं रह गए। यहां जैसे-तैसे अपनी बस्तियां बसाईं, लेकिन अधिकृत तौर पर इन्हें बिना नागरिक बने कछ भी हासिल नहीं हो सकता। दिल्ली के मजनं का टीला में साल 2012 से आकर बसते गए तकरीबन 250 परिवार का जायजा लेते हुए हमने पाया कि केन्द्र के नागरिकता संशोधन कानून ने इन्हें संजीवनी दी है। अधिसूचना के बाद 10 जनवरी, 2020 से नागरिकता संशोधन कानून लागू हो गया है। 31 दिसंबर, 2014 से पहले आए गैरमस्लिम शरणार्थियों को इस कानन के लाग करने की प्रक्रिया को हरी झंडी मिलने के बाद कानूनी प्रक्रिया से नागरिकता मिल जाएगी। पाकिस्तानी शरणार्थी कैंपों में से एक दिल्ली के मजनूं का टीला में शरणार्थियों की जिंदगी को करीब से देखने वाले हमारे स्थानीय संपादक की रिपोर्ट।
वसंत आता नहीं, लाना पड़ता है
वसंत का अपना जीवन दर्शन है- नित नया कलेवर धारण करना । वासंती हवाओं में तो आज भी वही सनातन मादकता-चंचलता है, परंतु उन पर रीझने वाले नहीं दिखते। अनंत व्योम में कहीं उल्लास की लालिमा नहीं, उमंग की कोई किरण नहीं। सर्वत्र वही भागमभाग, खींचतान और नीरसता। आनंद और आनंदोत्सव की परिकल्पना मन के एक कोने में निस्तेज पड़ी मानो अपने हाल पर सिसक रही, या यूं कहिए, कोस रही। वे दिन अब बीत चुके जब नैसर्गिक मनोरमता समस्त चराचर को स्पंदित और झंकृत करती थी। लेखनी काव्य सृजन के लिए उतावली हो उठती थी।
योजनाओं में शिक्षा को मिले उचित स्थान
दुर्भाग्य से भारत में शिक्षा को वरीयता न देकर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का बहुत कम अंश लगाया जाता रहा है। अब तक दो-तीन प्रतिशत तक ही यह सीमित रहा है, जबकि 6 प्रतिशत के लिए वर्षों से सैद्धांतिक सहमति बनी हुई है। इस बार भी बजट में इस पक्ष की अनदेखी की गई है। इस साल के बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शिक्षा क्षेत्र में वित्त वर्ष 2020-21 के लिए 99,300 करोड़ रुपये की घोषणा की है। यह धनराशि बीते वित्त वर्ष 2019-20 से करीब पांच हजार करोड़ रुपये अधिक है। बीते वित्त वर्ष 2019-20 में शिक्षा क्षेत्र को 94,853.64 करोड़ रुपये दिए गए थे। भविष्य के भारत के निर्माण के लिए शिक्षा में निवेश पर गंभीरता से विचार जरूरी है। शिक्षित समाज ही अपनी सक्रिय और सक्षम भागीदारी से भारत के लोकतंत्र को सशक्त बना सकेगा। अतएव सरकार को बजट में शिक्षा के लिए अधिक आवंटन करना चाहिए।
भारत की आर्थिक सेहत पर खास फर्क नहीं
विश्व में आहिस्ता-आहिस्ता दस्तक दे रही मंदी को हवा देने वाले अमेरिका-चीन ट्रेडवार से पीछा छुड़ाने के लिए दोनों देशों में सहमति की जमीन तैयार हो रही है। इस दिशा में पहले चरण का समझौता भी हो चुका है। फिर भी इसे निर्णायक बिंदु तक पहुंचने में अभी काफी वक्त लगेगा। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पहले चरण के करार का चीन की ओर से पालन करने की समीक्षा का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखा है। वह इसे राष्ट्रपति चुनाव तक खींचना चाहते हैं, ताकि इसे भुनाया जा सके। 15 जनवरी को सम्पन्न पहले चरण के करार के साथ ही सवाल उठाया जाने लगा है कि इसका भारत पर क्या असर होगा? इसकी वजह भी है क्योंकि अमेरिका और चीन दोनों भारत के बड़े व्यापारिक भागीदार हैं। वैसे इसमें दो राय नहीं कि अमेरिका-चीन की व्यापारिक सुलह दुनिया को प्रभावित करेगी। ऐसे में भारत अछूता कैसे रह सकता है?
बदलते परिवेश में भारतीय कृषि
कृषि को लाभकारी बनाने के लिए मूलभूत नीतिगत बदलाव आवश्यक है, जिस पर आज विचार-विमर्श तक नहीं हो रहा है। कृषि अनुसंधान और विकास में तत्काल कम से कम जीडीपी का एक प्रतिशत हिस्सा खर्च करना चाहिए, जिसे 10-15 वर्षों में 2 प्रतिशत के ऊपर ले जाना चाहिए। भारत जैसे देश में जहां जनसंख्या का घनत्व विश्व के औसत से पांच-छह गुना ज्यादा है, वहां निवेश की देरी देश के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालने वाली है। कृषि में विकास के बावजूद असंतोष पहले से ज्यादा बढ़ रहा है। आज के परिवेश में यह जरूरी है कि वास्तविक सामाजिक व आर्थिक परिदृश्य को पहचाना जाए तथा समाज की विसंगतियों एवं विषमताओं का यथाशीघ्र निराकरण किया जाए, अन्यथा आने वाले वर्षों में बढ़ने वाली विषम परिस्थिति को संभालना अत्यंत दुष्कर होगा।
बढ़ते शहरीकरण व जलवायु परिवर्तन पर चिंता
साहित्य का महाकुंभ पांच दिवसीय 'जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल-2020' का 13वां संस्करण 28 जनवरी को संपन्न हो गया। इस फेस्टिवल में 30 देशों के 500 से अधिक वक्ताओं और कलाकारों ने भागीदारी कर नई पीढ़ी को संस्कृति और साहित्य से रू-ब-रू होने का सुनहरा अवसर दिया। लिटरेचर फेस्टिवल में साहित्य की विभिन्न विधाओं से लेकर राजनीति, खेल और सिनेमा लेखन की नई तकनीक पर विचार-विमर्श हुआ।
बजट से नुकसान नहीं, लेकिन फायदेमंद भी नहीं
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वित्त वर्ष 2020-21 के बजट के जरिए ऊर्जावान भारत, समृद्ध मानव पूंजी और एक स्वस्थ भारत के लिए समग्र विकास की नीव रखी है। बजट में लाए गए कर प्रस्ताव का भी कुछ हद तक स्वागत किया जा सकता है। व्यक्तिगत करदाताओं को पांच लाख की आय पर कर नहीं देने से खपत को बढ़ावा मिल सकता है। इसके बावजूद देश की विकास दर बढ़ाने की कोई ठोस योजना बजट में नहीं दिखाई देती। अगले पांच साल में देश की इकोनॉमी को 5 ट्रिलियन डॉलर करने का लक्ष्य आखिर कैसे पूरा होगा, इसका कोई रोडमैप सरकार ने नहीं दिया है। जबतक प्राइवेट इन्वेस्टर पैसा नहीं लगाएगा, तबतक यह लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल ही है। आम जनता और बेरोजगार युवाओं को भी बजट से निराशा ही हाथ लगी है।