वास्तु शास्त्र भारतीय संस्कृति में सदियों से माने जाने वाला एक ऐसा विज्ञान है, जिसका वेदों और पुराणों में भी वर्णन मिलता है। अतः वास्तु शास्त्र वेदों जितना ही प्राचीन है व वेदों में वास्तु शांति के अनेक मंत्र भी उपलब्ध हैं। पुराने जमाने में स्थापत्य कला के नाम से प्रसिद्ध वास्तु शास्त्र भारतीय वास्तु कला का ही एक रूप है। ऋग्वेद के अनुसार विश्वकर्मा जी को संपूर्ण ब्रह्मांड का वास्तुविद माना जाता है।
पंचतत्व का महत्व
ब्रह्मांड के निर्माण में पांच तत्वों (धरती, आकाश, वायु, अग्नि व जल) की अहम भूमिका है। वेद भाषा में इन्हीं पांच तत्वों को पंचतत्व का नाम दिया गया है। इन्हीं से आत्मा और शरीर की उत्पत्ति होती है। मृत्यु के बाद भी मानव शरीर इन पांच तत्वों में ही मिल जाता है।
वास्तु शास्त्र प्रकृति के इन्हीं पांच तत्वों के बीच संतुलन बनाने का विज्ञान है, जिससे घर में प्रकृति द्वारा दी जा रही प्राकृतिक सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो सके। दैनिक जीवन में हम विभिन्न प्रकार की शारीरिक क्रियाएं करते हैं। वास्तु शास्त्र बताता है कि इन क्रियाओं का प्राकृतिक ऊर्जा के साथ किस प्रकार तालमेल बिठाया जा सकता है।
वास्तु शास्त्र व दिशाएं
वास्तु शास्त्र में दिशाओं का भी बहुत महत्व है। चार मूल दिशाएं उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम के अलावा इन चारों दिशाओं के मध्य ईशान (उत्तर-पूर्व), वायव्य (उत्तरपश्चिम), नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम), आग्नेय (पूर्व-दक्षिण) दिशा मानी जाती है।
आकाश व पाताल को मिला कर कुल 10 दिशाओं की ऊर्जा को भवन निर्माण के समय वास्तु शास्त्र के अनुसार इस तरह से इस्तेमाल किया जाता है कि उसमें रहने वालों पर इन दिशाओं का सकारात्मक प्रभाव पड़े।
विज्ञान के सिद्धांतों पर आधारित
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