सब से दयनीय मजदूर भारत को किसान
Farm and Food|May Second 2024
चुनावी व्यस्तताओं के बीच अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस आया और चला भी गया. पूरे साल यह देश कोई न कोई राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाता रहता है. बाल दिवस, वृद्ध दिवस, महिला दिवस, किसान दिवस, पर्यावरण दिवस वगैरह. अब तो हालात ये हैं कि साल के दिन भी कम पड़ गए हैं. एक ही तारीख में कई अलगअलग राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय दिवस पड़ रहे हैं, किसे मनाएं और किसे छोड़ें? पर क्या सचमुच हमारे देश की सरकारें और हम स्वयं इन तमाम गंभीर सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण संबंधी मुद्दों के प्रति गंभीर हैं?
डा. राजाराम त्रिपाठ
सब से दयनीय मजदूर भारत को किसान

देश की प्राथमिकताओं में ये मुद्दे कहां हैं? राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्रों, संकल्पपत्रों एवं गारंटियों में यह मुद्दे कहां हैं? इन यक्ष प्रश्नों पर विचार क्यों नहीं होना चाहिए?

हमारे देश में चुनाव पर्व कमोबेश पूरे साल निरंतर चलता रहता है? विधानसभा, लोकसभा और राज्यसभा के अलावा ग्राम पंचायतों के चुनाव, विभिन्न स्थानीय निकायों के चुनाव, नगरपालिका, नगरनिगम, कार्पोरेशनों के चुनाव, नाना प्रकार की सहकारी समितियों, सोसाइटी के चुनावों में देश लगातार व्यस्त रहता है.

हालिया लोकसभा के चुनाव चक्र में राजनीतिक पार्टियां पिछले कई महीनों से पूरे जहां देश को मथ रही हैं, वहीं एकएक रैली पर करोड़ोंअरबों रुपए खर्च हो रहे हैं. कुल मिला कर अरबों खरबों रुपए इन चुनावों के नाम पर खर्च किए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर चुनाव के नाम पर समस्त सरकारी मशीनरियां पंगु बनी हुई हैं. कहीं कोई सार्थक काम इंचभर आगे बढ़ता नहीं दिखता.

कहा जाता है कि अब जो कुछ भी होगा, चुनाव के बाद ही होगा. पर ये चुनाव तो सतत चलते ही रहेंगे. इन खर्चीले चुनावों के संपन्न होने के बाद दरअसल होता क्या है? 

अपवादों को छोड़ दें, तो इस में जो प्रत्याशी जीतेंगे, वे सब से पहले चुनाव में खर्च की गई अपनी पूरी रकम को मय ब्याज के इसी सिस्टम से येनकेन प्रकरेण वसूलेंगे. उस के बाद अपने आगामी चुनावों के लिए और आगे अपनी संतानों के चुनाव खर्च की अग्रिम व्यवस्था के लिए भी पैसा जनता की योजनाओं से ही चूसा जाएगा.

हमेशा की तरह ये सारे चयनित जनसेवक भी देखतेदेखते लोकतंत्र का पारस पत्थर घिस कर अमीर हो जाएंगे और आगे भी हमारेआप के जैसे लोग इसी तरह मजदूर दिवस, किसान दिवस मनाते और जिंदाबादमुरदाबाद करते रह जाएंगे.

अगर ऐसा नहीं होता, तो आजादी के 77 सालों बाद भी हमारे एक मजदूर की दैनिक मजदूरी एक कप अच्छी कौफी की कीमत से भी कम न होती. देश में न्यूनतम मजदूरी 300 रुपए से भी कम मिल रही है, जबकि आज अभिजात्य कौफीहाउस के एक कप कौफी की कीमत इस से ज्यादा है.

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