
इब्राहिम से मेहुल कुमार तक...
इब्राहिम से पहले मेहुल बलूच और फिर मेहुल कुमार बनकर तय हुआ लेखक, अदाकार और निर्देशक बनने का सफ़र।
'जनम जनम ... ' से मिला पहला ब्रेक
मैं 1976 में मुंबई आया और अगले ही साल 1977 में मेरी पहली फिल्म रिलीज़ हुई। इसका हिंदी में 'फिर जनम लेंगे हम' और गुजराती में 'जनम जनम ना साथी' नाम था। गुजराती दर्शकों के लिए नई तरह की पिक्चर थी, इसीलिए वहां ख़ूब चली। पर गुजराती कल्चर का रंग ज़्यादा होने से हिंदी में इतनी हिट नहीं हुई। यहां से मेरी यात्रा शुरू हुई। इस फिल्म के गाने भी मैंने लिखे थे। इस पर उन दिनों के वरिष्ठ गीतकार इंदीवर जी ने कहा था- 'मेहुल जी! स्टोरी, स्क्रीनप्ले, संवाद, गीत... इतना मत करो। भैया, कम से कम गाने तो लिखना बंद करो। गाने हमारे लिए रखो।' मैंने उनको कहा कि सर ! आज के बाद गाने नहीं लिखूंगा। उसके बाद मैंने कभी गाने नहीं लिखे।
मेरे पुरखे बलूचिस्तान से महाराजा रणजीत सिंह के समय भारत आए थे। कई पीढ़ियों से भारत में रहते-रहते भारतीय हो गए। दादा नूर मोहम्मद की ऊंचाई साढ़े छह फीट थी। वे महाराजा रणजीत सिंह के विशेष अंगरक्षक थे। पिताजी का नाम इब्राहिम था, इस तरह मेरा नाम मोहम्मद इब्राहिम बलूच हुआ। कॉलेज में पहुंचने के बाद मैं अपना उपनाम 'मेहुल' लिखने लगा। मेरे सारे उपन्यास मेहुल बलूच नाम से ही छपे हैं। इसी नाम से मैंने गाने भी लिखे। मेहुल के पीछे कुमार लगाने का आइडिया ताहिर हुसैन साहब का था। उनकी फिल्म कर रहा था, तब उन्होंने कहा कि 'बलूच' निकालकर 'कुमार' लगा दो, बलूच बोलने में मुश्किल लगता है।
पिता से विरासत में मिली कला
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वन के दम पर हैं हम
भौतिक विकास के रथ पर सवार मानव स्वयं को भले ही सर्वशक्तिमान और सर्वसमर्थ समझ ले, किंतु उसका जीवन विभिन्न जीव-जंतुओं से लेकर मौसम और जल जैसे प्रकृति के आधारभूत तत्वों पर आश्रित है।

दिखता नहीं, वह भी बह जाता है!
जब भी पानी की बर्बादी की बात होती है तो अक्सर लोग नल से बहते पानी, प्रदूषित होते जलस्रोत या भूजल के अंधाधुंध दोहन की ओर इशारा करते हैं।

वन का हर घर मंदिर
जनजाति समाज घर की ड्योढ़ी को भी देवी स्वरूप मानता है। चौखट और डांडे में देवता देखता है। यहां तक कि घर के बाहर प्रांगण में लगी किवाडी पर भी देवता का वास माना जाता है।

ताक-ताक की बात है
पहले घरों में ताक होते थे जहां ज़रूरी वस्तुएं रखी जाती थीं। अब सपाट दीवारें हैं और हम ताक में रहने लगे हैं।

किताबें पढ़ने वाली हीरोइन.
बॉलीवुड में उनका प्रवेश मानो फूलों की राह पर चलकर हुआ। उनकी शुरुआती दो फिल्मों- कहो ना प्यार है और ग़दर-ने इतिहास रच दिया। बाद में भी कई अच्छी फिल्मों से उनका नाम जुड़ा।

फ़ायदे के रस से भरे नींबू
रायबरेली के 'लेमन मैन' आनंद मिश्रा को कौन नहीं जानता! अच्छी आय की नौकरी को छोड़कर वे पैतृक गांव में लौटे और दो एकड़ कृषि भूमि पर नींबू की खेती करके राष्ट्रीय पहचान बनाई। प्रस्तुत है, उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी।

जहां देखो वहां आसन
योगासन शरीर को तोड़ना-मरोड़ना नहीं है, बल्कि ये प्रकृति की सहज गतियां और स्थितियां हैं। आस-पास नज़रें दौड़ाकर देखने से पता लगेगा कि सभी आसन जीव-जंतुओं और वनस्पतियों से ही प्रेरित हैं, चाहे वो जंगल का राजा हो, फूलों पर मंडराने वाली तितली या ताड़ का पेड़।

बांटने में ही आनंद है
दुनिया में लोग सामान्यत: लेने खड़े हैं, कुछ तो छीनने भी । दान तो देने का भाव है, वह कैसे आएगा! इसलिए दान के नाम पर सौदेबाज़ी होती है, फ़ायदा ढूंढा जाता है। इसके ठीक उलट, वास्तविक दान होता है स्वांतः सुखाय- जिसमें देने वाले की आत्मा प्रसन्न होती है।
बहानेबाज़ी भी एक कला है!
कई बार कितनी भी कोशिश कर लो, ऑफिस पहुंचने में देर हो ही जाती है, ऐसे में कुछ लोग मासूम-सी शक्ल बना लेते हैं तो कुछ लोग आत्मविश्वास के साथ कुछ बहाना पेश करते हैं। और बहाने भी ऐसे कि हंसी छूट जाए। बात इन्हीं बहानेबाज़ लोगों की हो रही है।

बहानेबाज़ी भी एक कला है!
कई बार कितनी भी कोशिश कर लो, ऑफिस पहुंचने में देर हो ही जाती है, ऐसे में कुछ लोग मासूम-सी शक्ल बना लेते हैं तो कुछ लोग आत्मविश्वास के साथ कुछ बहाना पेश करते हैं। और बहाने भी ऐसे कि हंसी छूट जाए। बात इन्हीं बहानेबाज़ लोगों की हो रही है।