'मुझे मेरे संवाद आप देवनागरी करवाकर दे दें, मुझे रोमन लिपि में संवाद पढ़ना पसंद नहीं।' महानायक अमिताभ बच्चन ने जब पटकथा के प्रिंट हमें लौटाते हुए ये कहा तो मन में एक आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी तो हुई ही, साथ ही पिछले एक दशक से भी अधिक समय से तमाम तरह के हिंदी कार्यक्रमों और फिल्मों के लिए अंग्रेज़ी में लिखी अपनी पटकथाएं भी याद आईं, जिन्हें अंग्रेज़ी में लिखना मजबूरी से ज़्यादा ज़रूरत बना दिया गया था।
भारतीय फिल्मोद्योग में सबसे ज़्यादा हिंदी फिल्में बनती हैं, जिन्हें मूल रूप हिंदी भाषी दर्शक देखते हैं, उनके संवाद अक्सर अपनी बातचीत में दोहराते हैं, मगर इस शहर, इस उद्योग में हिंदी पढ़ने वाले गिने-चुने लोग हैं और सही हिंदी पढ़कर समझ पाने वालों की संख्या तो और भी कम है। सितारों और फिल्मकारों के साक्षात्कार हों या हिंदी फिल्मों पर लिखी जाती अनगिनत किताबें, आमतौर पर ये सब हमें अंग्रेज़ी में ही मिलते हैं। आख़िर क्या कारण है कि हिंदी और उसकी लिपि देवनागरी को फिल्म उद्योग में ऐसे सौतेलेपन का सामना करना पड़ता है?
...क्योंकि अहिंदियों ने बनाया हिंदी सिनेमा
इस चलन की तह में जाने का प्रयत्न करें तो कुछ बातें बिलकुल साफ़ हैं, जैसे- हिंदी फिल्म जगत शुरुआत से ही दो खेमों में बंटा रहा - एक पंजाब और बंटवारे के बाद पाकिस्तानी हिस्से से आए कलाकारों का समूह और दूसरा बांग्ला निर्माता-निर्देशकों का दल इनके अलावा जो फिल्में उस समय बनाई जा रही थीं वे या तो मराठी होती थीं या ऐसी स्टंट फिल्में जिनमें विदेशी निर्देशक और भारत के अंग्रेज़ीदां निर्माता होते थे। इन सभी समूहों की लिपियां एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न थीं और सभी का हाथ हिंदी में कमोबेश तंग ही था। पंजाब, उत्तरी भारत और पाकिस्तान से आए कलाकारों और लेखकों को पढ़ने-लिखने के लिए उर्दू का सहारा था, वहीं कलकत्ता (अब कोलकाता) से आए सारे कलाकार बांग्ला पसंद करते। यहां तक कि उस दौर में संपूरण सिंह 'गुलज़ार' को भी बिमल रॉय के यहां इसलिए मौक़ा मिल गया कि वे बांग्ला लिखना पढ़ना और बोलना जानते थे।
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कथाएं चार, सबक़ अपार
कथाएं केवल मनोरंजन नहीं करतीं, वे ऐसी मूल्यवान सीखें भी देती हैं जो न सिर्फ़ मन, बल्कि पूरा जीवन बदल देने का माद्दा रखती हैं - बशर्ते उन सीखों को आत्मसात किया जाए!
मनोरम तिर्रेमनोरमा
अपने प्राकृतिक स्वरूप, ऋषि-मुनियों के आश्रम, सरोवर और सुप्रसिद्ध मेले को लेकर चर्चित गोंडा ज़िले के तीर्थस्थल तिर्रेमनोरमा की बात ही निराली है।
चाकरी नहीं उत्तम है खेती...
राजेंद्र सिंह के घर पर किसी ने खेती नहीं की। लेकिन रेलवे की नौकरी करते हुए ऐसी धुन लगी कि असरावद बुजुर्ग में हर कोई उन्हें रेलवे वाले वीरजी, जैविक खेती वाले वीरजी, सोलर वाले वीरजी के नाम से जानता है। उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी।
उसी से ग़म उसी से दम
जीवन में हमारे साथ क्या होता है उससे अधिक महत्वपूर्ण है कि हम उस पर कैसी प्रतिक्रिया करते हैं। इसी पर निर्भर करता है कि हमें ग़म मिलेगा या दम। यह बात जीवन की हर छोटी-बड़ी घटना पर लागू होती है।
एक कप ज़िंदगी के नाम
सिडनी का 'द गैप' नामक इलाक़ा सुसाइड पॉइंट के नाम से जाना जाता है। लेकिन इस स्थान से जुड़ी एक कहानी ऐसी है, जिसने कई जिंदगियां बचाईं। यह कहानी उस व्यक्ति की है, जिसने अपनी साधारण-सी एक पहल से अंधेरे में डूबे हुए लोगों को एक नई उम्मीद की किरण से रूबरू कराया।
कौन हो तुम सप्तपर्णी?
प्रकृति की एक अनोखी देन है सप्तपर्णी। इसके सात पर्ण मानो किसी अदृश्य शक्ति के सात स्वरूपों का प्रतीक हैं और एक पुष्प के साथ मिलकर अष्टदल कमल की भांति हो जाते हैं। हर रात खिलने वाले इसके छोटे-छोटे फूल और उनकी सुगंध किसी सुवासित मधुर गीत तरह मन को आनंद विभोर कर देती है। सप्तपर्णी का वृक्ष न केवल प्रकृति के निकट लाता है, बल्कि उसके रहस्यमय सौंदर्य की अनुभूति भी कराता है।
धम्मक-धम्मक आत्ता हाथी...
बाल गीतों में दादा कहकर संबोधित किया जाने वाला हाथी सचमुच इतना शक्तिशाली होता है कि बाघ और बब्बर शेर तक उससे घबराते हैं। बावजूद इसके यह किसी पर भी यूं ही आक्रमण नहीं कर देता, बल्कि अपनी देहभाषा के ज़रिए उसे दूर रहने की चेतावनी देता है। जानिए, संस्कृत में हस्ती कहलाने वाले इस अलबेले पशु की अनूठी हस्ती के बारे में।
यह विदा करने का महीना है...
साल समाप्त होने को है, किंतु उसकी स्मृतियां संचित हो गई हैं। अवचेतन में ऐसे न जाने कितने वर्ष पड़े हुए हैं। विगत के इस बोझ तले वर्तमान में जीवन रह ही नहीं गया है। वर्ष की विदाई के साथ अब वक़्त उस बोझ को अलविदा कह देने का है।
सर्दी में क्यों तपे धरतीं?
सर्दियों में हमें गुनगुनी गर्माहट की ज़रूरत तो होती है, परंतु इसके लिए कृत्रिम साधनों के प्रयोग के चलते धरती का ताप भी बढ़ने लगता है। यह अंतत: इंसानों और पेड़-पौधों सहित सभी जीवों के लिए घातक है। अब विकल्प हमें चुनना है: जीवन ज़्यादा ज़रूरी है या फ़ैशन और बटन दबाते ही मिलने वाली सुविधाएं?
उज्ज्वल निर्मल रतन
रतन टाटा देशवासियों के लिए क्या थे इसकी एक झलक मिली सोशल मीडिया पर, जब अक्टूबर में उनके निधन के बाद हर ख़ास और आम उन्हें बराबर आत्मीयता से याद कर रहा था। रतन किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं और महज़ दो माह पहले ही उनके बारे में काफ़ी कुछ लिखा भी गया। बावजूद इसके बहुत कुछ लिखा जाना रह गया, और जो लिखा गया वह भी बार-बार पढ़ने योग्य है। इसलिए उनके जयंती माह में पढ़िए उनकी ज़िंदगी की प्रेरक किताब। रतन टाटा के समूचे जीवन को चार मूल्यवान शब्दों की कहानी में पिरो सकते हैं: परिवार, पुरुषार्थ, प्यार और प्रेरणा। उन्हें नमन करते हुए, आइए, उनकी बड़ी-सी ज़िंदगी को इस छोटी-सी किताब में गुनते हैं।