
आज हम इस बात की शिकायत करते नहीं थकते कि बच्चों का सारा समय मोबाइल और अन्य गैजेट्स में ही बीत रहा है, उन्हें बाहर की दुनिया में कोई आकर्षण ही नहीं बचा। न ही उनकी नज़र कभी किसी एक चीज़ पर टिकती है। फिर हम उन्हें अपना वक़्त याद दिलाते हैं, किस तरह घर के भीतर रहना कैदखाने की तरह लगता था और किस तरह अपना सारा वक़्त घर के बाहर बाग-बाग़ीचों, पार्कों, गलियों और छतों पर बिताया करते थे। ये बड़ी हास्यास्पद-सी बात है। ऐसा इसलिए, क्योंकि वो हम ही हैं जिन्होंने बाहर की दुनिया से उनके जुड़ने के सारे तार काटकर अलग कर दिए हैं।
बच्चों के साथ प्रकृति का रिश्ता आज महज़ किताबी बनकर रह गया है। वे प्रकृति में रहते नहीं, बल्कि प्रकृति के बारे में पढ़ते हैं। वे प्रकृति की संतान के रूप में ख़ुद को महसूस करें, उसकी गोद में खेलें, इससे पहले ही उन्हें प्रकृति का रक्षक बनाने की कोशिश शुरू हो जाती है।
महत्व मत समझाएं, बस नाता जुड़वाएं
आज जब हम तेज़ी से प्रकृति के विनाश की ओर बढ़ रहे हैं, ये भूल रहे हैं कि प्रकृति के महत्व को समझने-समझाने से भी कहीं अधिक ज़रूरी है, बच्चों को प्रकृति का सान्निध्य प्रदान करना और उन्हें प्रकृति को महसूस करने के नियमित अवसर उपलब्ध कराना। विगत पीढ़ियों को प्रकृति के ऐसे न जाने कितने सुंदर बिंब मिले, जिनकी कल्पना भी आज के बचपन के लिए मुश्किल है। आकाश में उमड़ती काली काली घटाएं और उनके नीचे, खेतों की हरी-भरी मेड़ों पर दौड़ लगाते बच्चे । बाग़बागीचों में घास, छनकर बहते पानी की कलकल-झरझर और दूर कहीं छोर से उठती मोर की ऊंची आवाज़, जिसे सुनकर एक रोमांच-सा हो आता। जामुन और आमों से लदे पेड़, अमरूद से लदी डालियां, खेतों में फैली धान और गेहूं की लहराती -सी हरी चादर, आज भी बचपन की याद में एक हरापन-सा भर जाती है। हमने अपने बचपन में मिट्टी और पानी की न जाने कितनी प्रकार की गंध का अनुभव किया है और कुएं के जल की सौंधी मिठास से स्वयं को तृप्त किया है, घास में छुपे टिटहरी के अंडों को एक ख़ज़ाने की तरह देखा है और वर्षा के ताज़े जल से भरे तालों में डुबकी भी लगाई है।
किताब नहीं, सीधे साथ से बनेगी बात
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वन के दम पर हैं हम
भौतिक विकास के रथ पर सवार मानव स्वयं को भले ही सर्वशक्तिमान और सर्वसमर्थ समझ ले, किंतु उसका जीवन विभिन्न जीव-जंतुओं से लेकर मौसम और जल जैसे प्रकृति के आधारभूत तत्वों पर आश्रित है।

दिखता नहीं, वह भी बह जाता है!
जब भी पानी की बर्बादी की बात होती है तो अक्सर लोग नल से बहते पानी, प्रदूषित होते जलस्रोत या भूजल के अंधाधुंध दोहन की ओर इशारा करते हैं।

वन का हर घर मंदिर
जनजाति समाज घर की ड्योढ़ी को भी देवी स्वरूप मानता है। चौखट और डांडे में देवता देखता है। यहां तक कि घर के बाहर प्रांगण में लगी किवाडी पर भी देवता का वास माना जाता है।

ताक-ताक की बात है
पहले घरों में ताक होते थे जहां ज़रूरी वस्तुएं रखी जाती थीं। अब सपाट दीवारें हैं और हम ताक में रहने लगे हैं।

किताबें पढ़ने वाली हीरोइन.
बॉलीवुड में उनका प्रवेश मानो फूलों की राह पर चलकर हुआ। उनकी शुरुआती दो फिल्मों- कहो ना प्यार है और ग़दर-ने इतिहास रच दिया। बाद में भी कई अच्छी फिल्मों से उनका नाम जुड़ा।

फ़ायदे के रस से भरे नींबू
रायबरेली के 'लेमन मैन' आनंद मिश्रा को कौन नहीं जानता! अच्छी आय की नौकरी को छोड़कर वे पैतृक गांव में लौटे और दो एकड़ कृषि भूमि पर नींबू की खेती करके राष्ट्रीय पहचान बनाई। प्रस्तुत है, उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी।

जहां देखो वहां आसन
योगासन शरीर को तोड़ना-मरोड़ना नहीं है, बल्कि ये प्रकृति की सहज गतियां और स्थितियां हैं। आस-पास नज़रें दौड़ाकर देखने से पता लगेगा कि सभी आसन जीव-जंतुओं और वनस्पतियों से ही प्रेरित हैं, चाहे वो जंगल का राजा हो, फूलों पर मंडराने वाली तितली या ताड़ का पेड़।

बांटने में ही आनंद है
दुनिया में लोग सामान्यत: लेने खड़े हैं, कुछ तो छीनने भी । दान तो देने का भाव है, वह कैसे आएगा! इसलिए दान के नाम पर सौदेबाज़ी होती है, फ़ायदा ढूंढा जाता है। इसके ठीक उलट, वास्तविक दान होता है स्वांतः सुखाय- जिसमें देने वाले की आत्मा प्रसन्न होती है।
बहानेबाज़ी भी एक कला है!
कई बार कितनी भी कोशिश कर लो, ऑफिस पहुंचने में देर हो ही जाती है, ऐसे में कुछ लोग मासूम-सी शक्ल बना लेते हैं तो कुछ लोग आत्मविश्वास के साथ कुछ बहाना पेश करते हैं। और बहाने भी ऐसे कि हंसी छूट जाए। बात इन्हीं बहानेबाज़ लोगों की हो रही है।

बहानेबाज़ी भी एक कला है!
कई बार कितनी भी कोशिश कर लो, ऑफिस पहुंचने में देर हो ही जाती है, ऐसे में कुछ लोग मासूम-सी शक्ल बना लेते हैं तो कुछ लोग आत्मविश्वास के साथ कुछ बहाना पेश करते हैं। और बहाने भी ऐसे कि हंसी छूट जाए। बात इन्हीं बहानेबाज़ लोगों की हो रही है।