प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2021 में ग्लासगो जलवायु शिखर सम्मेलन के दौरान 'लाइफ' के अक्षरों का विस्तार कर इसको मायने दिया - पर्यावरण के लिए जीवनशैली. यह एक अहम पहल की घोषणा की थी. यह हमारे ग्रह के पर्यावरण संतुलन को साधे रखने वाली जीवनशैली अपनाने के विश्वव्यापी अभियान को गति देने का एक प्रयास है. यह बताता है कि मौजूदा पारिस्थितिकी संकट हमारी जीवनशैली के मूल्यों में गिरावट का नतीजा है और जब तक यह मूल्य प्रणाली नहीं सुधरती तब तक पारिस्थितिकी संकट दूर होने की कोई संभावना नहीं है. विश्वसनीयता हासिल करने और अन्य देशों के लिए एक उदाहरण बनने के लिए प्रधानमंत्री की यह पहल भारत की अपनी आर्थिक विकास रणनीति में शामिल होनी चाहिए.
भाजपा नीत सरकार अक्सर भारत के गौरवशाली अतीत, प्राचीन सभ्यता और चिरस्थायी ज्ञान की याद दिलाती है. भारतीय संस्कृति में प्रकृति को विभिन्न रूपों में पूजा जाता है, वह एक मां है, पालनहार है और उसे सौंदर्य का प्रतीक भी माना जाता है. यह आधुनिक औद्योगिक सभ्यतावादी सोच के विपरीत है, जिसमें प्रकृति को एक ऐसी डार्क फोर्स माना जाता है जिसे नियंत्रित करके मानवता की सेवा के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए. यही वह रवैया है जिसने हमारे ग्रह को तबाह कर रखा है. आज भारत भी इस दुष्चक्र में फंसा है. यह रातो-रात कोई बदलाव नहीं ला सकता, लेकिन स्पष्ट तौर पर किसी मध्यवर्ती लक्ष्य के साथ एक दीर्घकालिक रणनीति तैयार करके अपने विकास को पारिस्थितिकी स्तर पर अधिक स्थिर रास्ते की ओर उन्मुख कर सकता है. भारत की तरफ से कॉप-27 में सामने रखी दीर्घकालिक रणनीति इस संबंध में निराश करने वाली है जिसके तहत 2070 तक कार्बन उत्सर्जन नेट जीरो पर लाने का लक्ष्य रखा गया है.
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नहरें: थीं तो बेशक ये पानी के ही लिए
सीवान शहर के पास जुड़कन गांव के कृष्ण कुमार अपने गांव में खुदी पतली-सी नहर की पुलिया पर बैठे मिले. ऐन नहर के किनारे उनका पंपसेट लगा था, जिससे वे अपने खेत की सिंचाई कर रहे थे. वे नहर के बारे में पूछते ही उखड़ गए और कहने लगे, \"50 साल पहले नहर की खुदाई हुई थी. हमारे बाप-दादा ने भी इसके लिए अपनी जमीन दी. हमारा दस कट्ठा जमीन इसमें गया. जमीन का पैसा मिल गया था. मगर इस नहर में एक बूंद पानी नहीं आया. सब जीरो हो गया, जीरो पानी आता तो क्या हमको पंपसेट में डीजल फूंकना पड़ता.\"